Monday, August 30, 2010

जूते.

हां, ये सच है.
मैंने पुरानी यादों के कालीन पर,
पांव रखने से पहले,
जूते उतार दिये थे.
और ये भी सच है,
कि, यादों की भूल - भुलैया में,
ऎसा खोया कि, याद न आया,
कब, नंगे-पांव चल पडा.
चलता गया, चलता ही गया.
कुछ छूट गया, कुछ नया मिला.
यहां तक कि, जूते पहनने की,
पांवों की आदत, भी छूट गयी.
फिर एक दिन,
खट्टी-मीठी यादों में खोया,
पहुंच गया, भगवान के पास,
मन्दिर, मेरा बचपन का शौक.
ईश्वर से क्षमा मांगी,
अपनी गल्तियों के लिये.
और शुक्रिया अदा किया,
अल्लाह की नियामतों/ मेहरबानियों के लिये.
मन हल्का हो गया, राहत मिली.
मन्दिर से निकल ही रहा था,
कि, चौक गया, मन्दिर के बाहर,
मेरे जैसे, जूते देख कर.
समझ गया, नियति का सन्देश.
शायद ईश्वर भी चाहता है.
मेरे पांव, दुकान की ओर मुड गये,
लौटी खुशी, पहले-जैसे जूते पहन कर.
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Sunday, August 15, 2010

भूलें.

जीवन, एक भूल - भुलैया है.
भूलों से, हमारा नाता है.
हम ठोकर खा कर, गिरते हैं,
उठ कर चलना, स्वाभाविकता है.
हम में से ही, ज्यादातर,
भूल करें, तो दुखी सभी.
भूल करें, और भूल गये,
कुछ सीख्रें, ये सोचा न कभी.
जो साहस कर, निश्चय कर लें,
अब भूल को न दोहरायेंगे.
आगे बढें, बढते ही गये,
मनचाही मंजिल पायेंगे.


भूल करी, तो क्या गम है,
जीवन को आगे बढना है.
कोशिश और इच्छा-शक्ति से,
वह समय नहीं आने देंगे.
जब लज्जित होना पडा, झुके,
वो गहरा जख्म, भुला देंगे.
बहुत हो चुका, और नहीं अब,
और समय, बरबाद न हो.
नाविक की कार्यकुशलता क्या ?
जब धारा ही प्रतिकूल न हो.
ठान लिया, तो ठान लिया बस,
कोई ऎसा, काम न हो.


भूल, चुनौती देती हमको,
गिर कर, उठने का दम है ?
हां बिलकुल, इसमें क्या शक,
हम गिरें नहीं, दमखम है.
भूलों से, जो मिली चेतना,
व्यर्थ, नहीं जाने देंगे.
बीत गया, सो बीत गया है,
कल, खुशियों से भर देंगे.
भूल, भूलकर, भूल करें ना,
द्रढ - निश्चय ये हमारा है.
जीवन, फिर से मुसकायेगा,
झुकना नहीं गवारा है.

Tuesday, August 10, 2010

प्रतिध्वनि.

न जाने क्यों, कभी - कभी,
कुछ शब्द, मन के बन्द कमरे में,
बार - बार, गूंजते हैं.
और मैं, दूर कहीं,
अतीत में, खो जाता हूं.
काश । मेरे पास, ऎसा कुछ हो,
कि बीता समय लौटा लूं.
या फिर, मैं स्वयं,
भूत-काल की गहराईयों में, उतर जाउं.
लेकिन यह सम्भव नहीं.
यह तो, स्रष्टि के नियम-विरुध है.

कितना कुछ, बदल गया है आज.
कल, जो सच था,
आज वैसा, प्रतीत नहीं होता.
क्या सचमुच, सच बदलता है ?
या बदलती है, हमारी सोच ?
जो जमाने के साथ,
कदम नहीं मिला पाते, उन्हें कहते हैं,
गंवार, छोटी सोच वाले, आदि-आदि.
यहां तक तो, फिर भी ठीक है.
लेकिन, वर्तमान जब भूत को,
पहचानने से ही इन्कार कर दे ?

आज बर्सों पहले, कही बात, की प्रतिध्वनि,
मेरे कान में नहीं, मन में गूंज रही है.
जो कहते, वह करते, कर दिखाते.
या फिर ,कहते वही - जो कर सकते थे.
यह कल का सच था.
और आज का सच ।
मैं अभी भी, ढूंढ रहा हूं.
इसमें, शायद समय की गल्ती नही है.
गल्ती मेरी ही है.
मैंने, कल के सच को, ठीक से नहीं समझा.
और न ही, आज के इस सच को.
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Monday, August 2, 2010

जो होता है, ठीक ही होता.

जो होता है, ठीक ही होता.

इस वैग्य़ानिक युग में भी,
हैं कुछ रहस्य, अनसुलझे.
सब प्रश्नों के, मिले न उत्तर,
कुछ में पड कर, उलझे.
अन्धविश्वास का नहीं पक्षधर,
मैं चाहूं, बस इतना,
आधार बने आकार, सत्य का,
सार्वभौम सच जितना.
क्यों हम इस दुनिया में आय़े ?
क्या सब, पहले से निश्चित ?
है वह कौन, अद्रश्य शक्ति ?
करे नियन्त्रित, कार्यान्वित.

इसीलिये कहते आये क्या ?
जो होता है, ठीक ही होता.
जो होगा, वह ठीक ही होगा,
समय - चक्र, चलता ही रहता.
कौन बचाने वाला है वह ?
एयर-क्रैश में, जो बच जाये.
प्रलय और तूफानों में, वह कौन ?
जो किश्ती, बन कर आये ?
चारों और, मौत का तांडव,
गहरा संकट, छाया है.
जीवित बचता, बचने वाला,
कौन बचाने आया है ?

बडे - बडे वैग्य़ानिक, डाक्टर,
भी, रह जाते सकते में.
मौत के मुंह से, कौन बचाये ?
असम्भव, सम्भव पल भर में.
आदि - शक्ति, या ऊर्जा - शक्ति,
जो, विद्य्यमान है, कण कण में.
कुछ तो है, जो कभी बनाये,
कभी बिगाडे, क्षण - क्षण में.
चमत्कार, या महज छ्लावा ?
या वास्तिवकता, त्रण त्रण में.
ईश्वर का अस्तित्व नहीं यदि,
जीवन - स्रष्टि, जल - थल में ?

सभी धर्म - सम्प्रदाय, के दावे,
अलग, अलग और अलग नहीं.
अपने को सब, बडा ही मानें,
मूल - प्रश्न है, वहीं का वहीं.
आऒ हम सब खोज करें,
मानव, मानवता के लिये.
वैग्य़ानिक-सच, सब के ऊपर है,
सबकी शक्ति, सबके लिये.
धर्म हमारा, मानवता हो,
सब की हो, पहचान एक.
हम सब हैं बराबर, विश्व एक.
मालिक है एक, करें कर्म नेक.
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