Friday, November 5, 2010

अहसास.


आज खुशी से डर लगता है,
कहीं छ्ला न जांऊ फिर.
बहुत यत्न से इन्हें सम्भाला,
अश्क, छ्लक न आयें फिर.
इन्सानों ने, नहीं छ्ला है,
मेरी रूह, ही भटक गयी.
साज-समान सजा, खुशियों के,
जाने कहां ? वो चली गयी.
ढूंढा तो था, तन और मन से,
फिर भी, मैं नाकाम रहा.
वही हो गया, जिसका डर था,
सब बन कर, बेकार रहा.

फिर एक दिन, मन्दिर की घन्टी,
कानों में, कुछ बोल गयी.
सुभय-सबेरे भीनी खुशबू,
कुछ रुक - रुक कर, डोल गयी.
उडते पक्षी, बहती नदिया,
सबका यही इशारा है.
सुख-दुख पूरक हैं, जीवन के,
दरिया, समय, किनारा हैं.
बदला मौसम, नई उमंगें,
आशा और विश्वास नया.
अब होगा, जो नहीं हुआ है,
जागा है, अहसास नया.
---०---