Wednesday, May 27, 2015

रुढियों के पार, जाने का साहस,

रूढ़ियाँ, जिन्होंने शायद,
समाज को कभी ,नई दिशा, दी होगी.
आज, उसी समाज के,
विकास में, बाधा बन गई हैं.
सिर्फ, बाधा ही नहीं,
कभी – कभी, तो, बहुमूल्य जीवन,
की आहुति भी, नाकाफी होती है
समाज की हठधर्मिता, और वहसीपन,
के आक्रोश, को शान्त करने में.

सोचता  हूँ.!
कब तक, चलता रहेगा, ये सब ?
आखिर, कब, तक ?
शिक्षा के प्रसार, और वैज्ञानिक – प्रगति,
ने भी, नहीं बदली है, पशुता,
कट्टरतावाद ,और धर्मान्धता, का पागलपन.
आज, हमें सोचने को, विवश कर रहा है.

मानवता, और व्यकितगत – आजादी,
के मायने, और लक्ष्य,
फिर से गठित, और परिभाषित
करने के लिये,
कितने लोग. रुढियों के पार,
जाने का साहस, जुटा पाते हैं ?
इन्सानियत और न्याय की बात, करते हैं.
क्या हम ? यूं ही,
पीढ़ियों को, बर्बाद होते, देखते रहेंगे.

नहीं, कदापि नहीं. कभी नहीं.
हमें भी, विशेषकर  नई पीढी को,
इस जुल्म और बर्बरता के खिलाफ,
मजबूती और साहस के साथ,
एकजुटता, और धैर्य से, मुकाबला करना होगा.
तब ही, हम अपने अस्तित्व को,
सार्थक कर पायेंगे.
एक न्यायोचित, सभ्य, एवं प्रगतिशील, समाज,
का सपना, पूरा कर पायेंगे.
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( यह रचना २५ दिसम्बर २०१३  को लिखी गई. )


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Thursday, May 21, 2015

२०१४ :  मंगल – कामना.

नये- साल,  का अभिनन्दन है,   नव- वर्ष,  मंगलमय हो.
बीता- वर्ष,  तो बीत गया है,   अब, नया- साल, मुबारक हो.
सभी सुखीं हों,  सभीं स्वस्थ हों,   सभी ओर, खुशहाली हो.
मानव में,  मानवता जागे,   सत्य- अहिंसा,  पाली हों.

आपस में,  अपनापन आये,   भाई- भाई में,  भाईचारा.
सुख- दुःख, सब मिलकर, बाँटेंगे,  दूर भगायेंगे, अँधियारा.
चमत्कार की,  उम्मीद छोड़,   छोटी- छोटी  खुशियाँ ढूंढें.
सभी,  एक ईश्वर, की रचना,   पाठ पढ़ायें,   और पढ़ें.

हम बदलेंगे,  युग बदलेगा,   ऐसी सोच,  हमारी हो.
मिल- कर मसले, सुलझा लेंगे,  सबकी जय, सबकी जय, हो.
भूखा- नंगा,  रहे ना कोई,    ईश्वर,  ऐसा कुछ कर दो.
सदाचार और  सेवा- भाव हो,   परमेश्वर  ऐसा वर दो.
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( यह रचना, १९ दिसम्बर २०१३ को लिखी गयी. )


Wednesday, May 20, 2015

“क्षमा.’’


                      
क्षमा- दान, है, महा- दान,  जो  समझा, वह है, ज्ञानी.
“ क्षमा- नहीं ; पर अड़ियल- रुख,  है, नासमझी, नादानी.
बड़े- बड़ों  को,  शोभा देता,   क्षमा करें,  पहलू देखें.
बड़े, बड़प्पन, भी दिखलायें,  छोटों का मन, भी रखें.
अपनी जिद, पर, अड़े रहें जो,  जानबूझ, अनजान बनें.
नाहक, तिल का ताड, बनायें,  लाख मनाओ, ना मानें.
खुद तो  परेशान रहते ही,   औरों को, भी  बेचैन करें.
इन सबकी, बस ,दवा एक है,  क्षमा करें, मन शान्त करें.

जीवन की  सकारात्मक उर्जा,   की परिणति,  है क्षमा.
कायरों का नहीं , वीरों का,   आभूषण है क्षमा.
जो, जीवन से,  दूर भागते,   वे, क्या,  क्षमा करेंगे.
स्वार्थ, ईर्षा,  हावी, जब हों,   सत्यानाश, करेंगे.
क्षमा करे, और, क्षमा भी, मांगें,  अपनी गलती, करने पर.
निस्वार्थ- भाव, औरों का, सुख भी,  ध्यान रहे, ये जीवन भर.
अपनी खुशी का, मतलब तब ही,    जब, अपने भी, खुश हों. 
मिलजुल, मसले  सुलझा लेंगे,   अपनों का,  दुःख अपना हो.

डी० एन० ए०  महापुरुषों के हैं,   क्षमा किया,  दुश्मन को.
एक नहीं, कई बार,  हुआ यह,   इतिहास गवाह,  सभी को.
प्रभु  ईशा, ने,   क्षमा किया,   सूली चढाने,  वाले को.
माफी का, सन्देश दे गये,  मरते- मरते,  जन-जन, को.
भृगु  ऋषि ने, विष्णु- छाती, चढ़,  पैरों से, प्रहार किया.
माफ कर दिया, बोले, विष्णु,  ऋषिवर, पैर को कष्ट हुआ.
हम -सब भी,  क्षमा करना, सीखें,   छोटे झगडे, मामूली बात.
घर –परिवार,  खुशी में , झूमें,   जैसे,  फूलों की बरसात.
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Sunday, May 17, 2015

उजियारा होने को है.

दुःख की काली घटा घिरी हैं,  ऊपर से अंधियारी रात.
 काटे समय, कटे नहीं दुःख का, लाख जतन, ना चले बिसात.
धीरे- धीरे  छूट रहे हैं,  बने सहारा,   जो अब तक.
कल की बात, तो कल ही जाने,  आज अँधेरा सीमा तक.
ऐसे में, चमका ज्यों जुगनू,  देवदूत सा लगा,  हमारा.
आशा बंधी, नहीं खोया सब,  होने ही को है, उजियारा.

कभी- कभी, लगता है ऐसा,  जैसे, सब -  कुछ, गँवा दिया.
गलती  निश्चित ही, अपनी है,   अपनों ने आघात दिया.
जब- जब सोचा, और कोशिश की,  अपने हालात बदलने की.
लेकिन,  समय ने साथ दिया ना,   नौबत आई, गिरने की.
तभी,  कहीं से  आई आवाज,  संभलो,  उठो,  करो, विश्वास.
गिरना नहीं, गिर कर, संभलो ,तुम,  जीवन –आशा, खडी है पास.

कभी- कभी   मन डांवांडोल,   कोई युक्ति,   काम न आये.
अपनों पर,   अपनापन भारी,   बदल गये,  जो अपने साये.
चारों ओर,   निराशा  फैली,   गम के बादल,   छाये हैं.
एकाकी मन,  भटक रहा है,   अनहोनी,   बन  आये हैं.
तभी, हुआ,  ज्यों, टूटा  सपना,   सजा,   पूर्ण होने को है.
दुःख की,  काली घटा,  छ्टेगी,   उजियारा  होने को है.

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( यह रचना २८ अक्तूबर २०१३ को लिखी गई. )       

Saturday, May 16, 2015

एक पापा की वसीयत.


जिस बगिया को सींचा हमने, अपने खून- पसीने से.
नहीं उजड़ने दूंगा उसको,  कुछ नासमझी होने से .
हम थे बहादुर, हम हैं बहादुर, मेरा परिवार बहादुर है,
तूफानों से नहीं दरेंगें,  माना पतवार ही गायब है.

लहरों से डरना नहीं सीखा, तूफान तो आते रहते हैं.
जान लगा देंगे. बचाव में,  जब तक सांसें बकीं हैं.
बच्चे मेरे, समझदार हैं, पढ़े- लिखे और हैं, विद्य्वान.
नहीं निराश करूँगा उनको,  देना पड़ा, यदि बलिदान.

फर्ज निभाऊंगा मैं अपना, है मुझ पर, उनका अधिकार.
गर्व मुझे, अपने बच्चों पर,  बाकी ईश्वर का आभार.
जो पापा कहते आये हैं,  वे प्राणों से भी प्यारे.
उनका हित ही, धर्म है मेरा,  धर्म,  अधर्म, न्यारे, न्यारे.

न्याय करूँगा, नहीं है मुझको,  अपने सुख- दुःख की परवाह.
“सत्यमेव जयते’’ निश्चित हो   मेरी आत्मा बने गवाह.
नहीं करूँगा पक्षपात,   मैं   अनहोनी के डर से.
सह लूँगा, दुःख, - कष्ट सभी,  यदि न्याय कर सकूँ मन से.

मेरा जीवन अर्पित सच को,   न्याय, फर्ज, शाश्वत हैं.
सुख- दुःख, आती, जाती छाया,  सत्कर्म, मेरी ताकत हैं.
कोशिश मेरी होगी,   सबको न्याय मिले,  सब खुश हों.
मेरा सुख,  सबसे पीछे हो,   पहले न्याय निश्चित हो.
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  ( यह रचना ०४ अक्तूबर २०१३ को लिखी गई .)




माँ

माँ के लिये, न खौल उठे जो, खून नहीं, वह पानी है.
बूढी माँ को, मिले ना आदर,  वह बेकार जवानी है.
माँ का दुःख, जो समझ न पाये, वह औलाद निक्कमी है.
अपनी मस्ती, सुख अपना ही, रोये, पछताये, जननी है.

माँ का दर्जा, सर्व विदित, है नहीं, दूसरा सानी.
विश्व-विधाता, स्वम झुक गये, माँ की बात, ही मानी.
माँ, शब्द, नाम है शक्ति का, जो जीवन- सुख देती है.
माँ, कबच बने, हर संकट में, हमें सुला, जगती है.

माँ ने सांसें दी हैं हमको, रक्त, अस्थि, माँ का ही दिया.
मेरा, सब अस्तित्व है, माँ ही, सब कुछ सह, हमें बड़ा किया.
माँ का कर्ज है, जीवन पर, सिर्फ दिया ही, कुछ ना लिया,
माँ को, थोड़ी खुशी दे सकूँ, कुछ तो करूँ जो नहीं किया.

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( सभी माताओं को समर्पित यह यह रचना, ३० मार्च २०१३ को लिखी गई.       

Friday, May 15, 2015

खुश- रहो.

हर खुशी हो वहां,  कदम तेरे जहाँ.
जिन्दगी हो वहां,  तू रहे भी जहाँ.
खुश रहें, ना रहें,  है हमें गम नहीं.
जो सोचा, वो होगा,  मुकम्मल नहीं.
था भरोसा हमें,  आज भी, है वही.
हम तुम्हारे लिये हैं,  कोई शक नहीं.
मुस्कुराते रहो,  हर समय, हर, जहाँ.
जिंदगी हो वहां,  तू रहे भी जहाँ .

हाँ अँधेरे हैं आगे,  हमें डर नहीं.
कोई जुगनु दिखायेगा,  मंजिल नई.
सलामत रहो,  हम करेंगे दुआ.
कर भला ,हो भला,  सीख सिखला गई.

सबको सब कुछ मिले,  ये जरुरी नहीं.
जो मिला, है मयस्सर,  है शिकवा नहीं.
ज्ञान की रोशनी,  से हो, रोशन, वहां.
जिन्दगी हो वहां,  तू रहे भी जहाँ.

कामयाबी की,  हर नई, मंजिल मिले.
जो चाहा, जो ठाना,  वो सब कुछ मिले.
झोली भर दें, खुशी की,  प्रभु सब से है न्यारा.
चाँद- तारे सजा दें,  जो आँगन  तुम्हारा.
सभी सुख मिलें,  हो ईश्वर की माया.
जीवन में सब कुछ,  सफलता का साया.
खुशियों का डेरा हो,  चांदनी हो वहां.
जिन्दगी हो वहां,  तू रहे भी जहाँ.
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( यह रचना मूलतः २७ सितम्बर २०१२ को लिखी गई. )        


स्वीकारोक्ति

यह मन मेरा भी पागल है, सपनों के पीछे दौड़ रहा.
सपना तो आखिर सपना है, आँख खुली तो कुछ न रहा.
कैसा यह खेल, विधाता का, सोचा ना बुरा, ना बुरा किया.
कोशिश अच्छा करने की थी, क्षमा करें, सपना न जिया.

हाँ, दोष, अन्त में, मेरा ही, परवरिस में शायद चूक हुई.
समझा जिसको मैं आजादी, साबित जीवन की जेल हुई.
ईश्वर तो नेक दयालु हैं, सबकी रक्षा, पालन सबका.
मैं ही, जिम्मेदार स्वयं, अपनी करनी, और सपनों का.

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{ यह रचना मूलतः १७ अक्तूबर २०१२ को लिखी गई. }


परिवार

परिवार
परिवार नहीं हम चुनते हैं, ज्ञानी- चिन्तक कहते आये.      
पूर्व- निर्धारित, माप- दण्ड ही, परिवार का कारण बन जाये.
पूर्व- जन्म के सत्कर्मो / दुष्कर्मों, प्रयासों, का लेखा- जोखा.
तय करता है, कहाँ जन्म हो, और परिवार की रुपरेखा.

ईश्वर करता सम्पूर्ण न्याय, निष्पक्ष, सभी प्राणी के लिये.
किसे महल और किसे झोंपड़ी, पारिवारिक उपहार दिये.
प्राणी का परिवार ही जग में, प्रथम और अन्तिम आश्रय.
परवरिस और पालन- पोषण, अन्तर का केंद्र है परिवाश्र्य.

परिवार के कारण ही कुछ को, सुविधा, प्रतिष्ठा मिलती है.
और इसी कारण. कुछ में, भुखमरी, गरीबी पलती है.
परिवार हमें सब- कुछ देता, प्रष्ठभूमि और दायरे में.
फर्ज हमारा भी है बनता, विश्वास करें सत्कर्मों में.

परिवार हमें है, नहीं रोकता, आगे बढ़ने, सत्कर्मों से.
कड़ी मेहनत, और सूझ- बुझ, लड़े अभाव, गरीबी से.
हिम्मत हो, और जिजीविषा हो, कुछ भी पा सकते हैं.
सर्वोच्च लक्ष्य भी, नहीं असंम्भव, हासिल कर सकते हैं.

अब हम सोचें, हमने दिया क्या ? परिवार ने हमको इतना दिया.
कुछ तो सार्थक करें, स्वयं को, नई आशा, और नये विचार.
लाभ मिले मानव- जाति को, पूरा विश्व, हमारा परिवार.
तभी सफल हो, जीवन अपना, धर्म हमारा, मानव- परिवार.


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Thursday, May 14, 2015

यूं  ही

जीवन में संयोग कभी, बस यूं ही बन जाते हैं.
अनजानी राहों के बीच, मन- मीत नजर आते हैं.
दीपक की लो राह दिखाये, भटकें जब अंधियारे में.
सूरज – रश्मि रंग भर देती, जीवन के गलियारे में.

अकस्मात कुछ भी ना होये, कुछ तो कारण होगा.
विज्ञान- ज्ञान में बंधे सभी, बिन बादल जल बरसेगा ?
निश्चय ही कोई शक्ति, नियंत्रित करती सारे जग को.
तब ही दो अनजान बांटते, सुख- दुःख, जीवन- धन को.

कैसा ये खेल विधाता का, कोशिश भी कभी नहीं फलती.
बिन मांगे मोती मिलते हैं, मांगे भीख नहीं मिलती.
रिश्ते- नाते हमें बनायें, या हम उन्हें बनाते हैं.
जो भी समझो, यह तुम पर है, हम-सब आते- जाते हैं.

लेकिन कुछ तो है शक्ति- सूत्र, जो नजर नहीं आता है.
लाख मना  कर ले कोई, बस खिंचा चला जाता है.
क्या है !  यह संयोग मात्र, जब अनजाने संग प्रीत जगे.
बन जायें जन्मों के नाते, जीवन-जोत, प्रभात उगे.

अनजानी राहों के बीच, अजनबी बहुत मिलते हैं.
उनमें मन- मीत नजर आये, मन में सपने पलते हैं.
ऐसा ही कुछ हुआ है, यूं ही, आदेश मान ईश्वर का.
गठबंधन, ये प्यार का बंधन, अमर- प्रेम, जीवन का.

जो भी हो, है स्वीकार हमें, आभार, भार, ईश्वर का.
नत- मस्तक हैं, धन्यवाद, उस परमपिता परमेश्वर का.
तेरा तुझ को अर्पण भगवन, हम में वह शक्ति दो.
पूरा करें किया जो वादा, कर्म- प्रेरणा भर दो.
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( यह रचना मूलतः १३  मार्च २०१२ को लिखी गई )