Tuesday, August 10, 2010

प्रतिध्वनि.

न जाने क्यों, कभी - कभी,
कुछ शब्द, मन के बन्द कमरे में,
बार - बार, गूंजते हैं.
और मैं, दूर कहीं,
अतीत में, खो जाता हूं.
काश । मेरे पास, ऎसा कुछ हो,
कि बीता समय लौटा लूं.
या फिर, मैं स्वयं,
भूत-काल की गहराईयों में, उतर जाउं.
लेकिन यह सम्भव नहीं.
यह तो, स्रष्टि के नियम-विरुध है.

कितना कुछ, बदल गया है आज.
कल, जो सच था,
आज वैसा, प्रतीत नहीं होता.
क्या सचमुच, सच बदलता है ?
या बदलती है, हमारी सोच ?
जो जमाने के साथ,
कदम नहीं मिला पाते, उन्हें कहते हैं,
गंवार, छोटी सोच वाले, आदि-आदि.
यहां तक तो, फिर भी ठीक है.
लेकिन, वर्तमान जब भूत को,
पहचानने से ही इन्कार कर दे ?

आज बर्सों पहले, कही बात, की प्रतिध्वनि,
मेरे कान में नहीं, मन में गूंज रही है.
जो कहते, वह करते, कर दिखाते.
या फिर ,कहते वही - जो कर सकते थे.
यह कल का सच था.
और आज का सच ।
मैं अभी भी, ढूंढ रहा हूं.
इसमें, शायद समय की गल्ती नही है.
गल्ती मेरी ही है.
मैंने, कल के सच को, ठीक से नहीं समझा.
और न ही, आज के इस सच को.
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