कविता.
( यह रचना, ३० जुलाई २०१५ को लिखी गई. )
सावन की एक साँझ, मैंने आसमान की ओर देखा.
घुमड़ते बादलों की
तरह, कुछ शब्द,
मन में, बना
रहे, रुपरेखा.
बिन बरसे, बादल छंट गये,
हवा ने, किया कमाल.
अनमने मन से, ढूंड
रहा मैं, कविता का माया – जाल.
नींद आई. सपना
भी आया, पर,
कवित्ता का पता
न पाया.
सवेरे उठा, तो हैरान,
पूछ रही कविता,
कुछ खो गया.
नहीं. मैंने कहा, -
लिखना था कुछ,
ढूंड रहा, शब्दों
की ताल.
ओफ ! कहा कविता
ने, क्यों निकाल
रहे, बाल
की खाल.
निकला बाजार, देखकर
हुआ हैरान, दुध – मुंही
बच्ची, लेटी जमीन
पर.
माँ, बना रही, सीमेंट – रेत
का गारा, भरा तसला,
रखा सिर पर.
अभावों की पराकाष्ठा
से अनजान, बच्ची सो रही है.
और माँ, पसीना
पोंछ, पल्लू से,
मन्द – मन्द मुस्करा रही
है.
भीख माँग रही, एक
छोटी लड़की, जिसे, कुछ
पता नहीं.
पता है तो बस इतना,
भूखी है, खाने
को, कुछ
नहीं.
नाम `क` से बताती
है, आगे के
शब्द, स्पष्ट नहीं.
शायद, कृष्णा, कावेरी या कविता,
घटना है, गवाह
नहीं.
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