एक पापा की वसीयत.
जिस बगिया को सींचा हमने, अपने खून- पसीने से.
नहीं उजड़ने दूंगा उसको, कुछ
नासमझी होने से .
हम थे बहादुर, हम हैं बहादुर, मेरा परिवार बहादुर है,
तूफानों से नहीं दरेंगें, माना पतवार ही गायब है.
लहरों से डरना नहीं सीखा, तूफान तो आते रहते हैं.
जान लगा देंगे. बचाव में, जब
तक सांसें बकीं हैं.
बच्चे मेरे, समझदार हैं, पढ़े- लिखे और हैं, विद्य्वान.
नहीं निराश करूँगा उनको, देना
पड़ा, यदि बलिदान.
फर्ज निभाऊंगा मैं अपना, है मुझ पर, उनका अधिकार.
गर्व मुझे, अपने बच्चों पर, बाकी
ईश्वर का आभार.
जो पापा कहते आये हैं, वे
प्राणों से भी प्यारे.
उनका हित ही, धर्म है मेरा,
धर्म, अधर्म, न्यारे, न्यारे.
न्याय करूँगा, नहीं है मुझको,
अपने सुख- दुःख की परवाह.
“सत्यमेव जयते’’ निश्चित हो मेरी आत्मा बने गवाह.
नहीं करूँगा पक्षपात, मैं अनहोनी के डर से.
सह लूँगा, दुःख, - कष्ट सभी,
यदि न्याय कर सकूँ मन से.
मेरा जीवन अर्पित सच को, न्याय, फर्ज, शाश्वत हैं.
सुख- दुःख, आती, जाती छाया,
सत्कर्म, मेरी ताकत हैं.
कोशिश मेरी होगी, सबको न्याय मिले, सब खुश हों.
मेरा सुख, सबसे पीछे हो, पहले
न्याय निश्चित हो.
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( यह
रचना ०४ अक्तूबर २०१३ को लिखी गई .)
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