Friday, May 15, 2015

स्वीकारोक्ति

यह मन मेरा भी पागल है, सपनों के पीछे दौड़ रहा.
सपना तो आखिर सपना है, आँख खुली तो कुछ न रहा.
कैसा यह खेल, विधाता का, सोचा ना बुरा, ना बुरा किया.
कोशिश अच्छा करने की थी, क्षमा करें, सपना न जिया.

हाँ, दोष, अन्त में, मेरा ही, परवरिस में शायद चूक हुई.
समझा जिसको मैं आजादी, साबित जीवन की जेल हुई.
ईश्वर तो नेक दयालु हैं, सबकी रक्षा, पालन सबका.
मैं ही, जिम्मेदार स्वयं, अपनी करनी, और सपनों का.

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{ यह रचना मूलतः १७ अक्तूबर २०१२ को लिखी गई. }


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