रुढियों के पार, जाने का साहस,
रूढ़ियाँ, जिन्होंने शायद,
समाज को कभी ,नई दिशा, दी होगी.
आज, उसी समाज के,
विकास में, बाधा बन गई हैं.
सिर्फ, बाधा ही नहीं,
कभी – कभी, तो, बहुमूल्य जीवन,
की आहुति भी, नाकाफी होती है
समाज की हठधर्मिता, और वहसीपन,
के आक्रोश, को शान्त करने में.
सोचता हूँ.!
कब तक, चलता रहेगा, ये सब ?
आखिर, कब, तक ?
शिक्षा के प्रसार, और वैज्ञानिक – प्रगति,
ने भी, नहीं बदली है, पशुता,
कट्टरतावाद ,और धर्मान्धता, का पागलपन.
आज, हमें सोचने को, विवश कर रहा है.
मानवता, और व्यकितगत – आजादी,
के मायने, और लक्ष्य,
फिर से गठित, और परिभाषित
करने के लिये,
कितने लोग. रुढियों के पार,
जाने का साहस, जुटा पाते हैं ?
इन्सानियत और न्याय की बात, करते हैं.
क्या हम ? यूं ही,
पीढ़ियों को, बर्बाद होते, देखते रहेंगे.
नहीं, कदापि नहीं. कभी नहीं.
हमें भी, विशेषकर नई पीढी को,
इस जुल्म और बर्बरता के खिलाफ,
मजबूती और साहस के साथ,
एकजुटता, और धैर्य से, मुकाबला करना होगा.
तब ही, हम अपने अस्तित्व को,
सार्थक कर पायेंगे.
एक न्यायोचित, सभ्य, एवं प्रगतिशील, समाज,
का सपना, पूरा कर पायेंगे.
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( यह रचना २५ दिसम्बर २०१३ को लिखी गई. )
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