मानव –
धर्म.
( यह रचना, १६ जून, २०१५ को लिखी गई. )
जीवन में, निश्चित, कुछ
भी, नहीं, जो
सोचा, वह हुआ
नहीं.
पल – पल बदले, हालातों
में, हो
रहा, हुआ, सोचा,
ही नहीं.
ऐसा भी नहीं,
सब, बुरा हुआ,
कुछ अच्छा भी,
हिस्से आया.
समझे थे, जो, है
अभिशाप, वरदान
वही, बनकर आया.
क्यों, दोषारोपण हो,
ओरों पर, हम,
भी हैं, बराबर – साझीदार.
शायद, नौबत यह ना आती,
होते, यदि सजग,
व समझदार.
अब पछताये, कुछ
होय नहीं, जो
हुआ, समय वह,
बीत गया.
कुछ करें, बनें,
खुद के प्रहरी, बदलाव जरुरी, है,
समय नया.
मानव – देह यह,
मिली हमें, मानव –
धर्म निभाना
होगा.
अपने – लिये, सभी जीते
हैं, ओरों के लिये भी, जीना
होगा.
जो भी मिला,
है सिर – माथे, स्वीकार
करें, सदुपयोग करें.
बूंद – बूंद से, भरे सरोवर, सपने, अपने साकार
करें.
मानव – मानव हैं, सभी
बराबर, ईश्वर
ने, ना भेद
किया.
हम, क्यों बंटे, जाति
– धर्मों में, कुछ
को, पीछे छोड़
दिया.
जीयो और जीने
दो, सबको, अपना, योगदान भी हो.
पूरी – दुनिया, घर अपना
ही, सबके – मालिक, की
जय हो.
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