अपना –
अपना सच.
( यह रचना, २० जून२०१५ को लिखी गई. )
सब हैं, आदि –
शक्ति की
रचना, लेकिन
सबका अलग वजूद.
कोई दो इन्सान, विश्व
में. नहीं एक, कहें आँखें –
मूंद.
सच का रूप, कभी ना
बदले, प्रक्रति
है, परिवर्तनशील.
यही, वजह बनती,
संशय की, होना
पड़े, सच को ही, जलील.
सबके, अपने अलग, तर्क हैं, अलग
अलग भगवान.
अपने हित, को ऊपर रखें, फिर, कैसे लें, जान ?
मन – माफिक सच को तय करते,
आफत, लेते मोल.
आखिर, हो जाते बेनकाब,
जब
खुल जाये पोल.
सच को, सच, ही रहने दें,
जाँच, अपनी शिक्षा – दीक्षा.
सत्यवादी की, जीवन – पथ पर, पग –
पग होगी,
परीक्षा.
सच, एक पूजा,
सच है, तपस्या, महापुरुषों
का, कहना है.
तैयार है, जो
सब, खोने
को, उसने, सच को जाना
है.
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