कहीं,
देर ना हो जाये.
( यह रचना, २३ जून २०१५ को लिखी गई. )
सच, बदल नहीं
जाता, अपनी गलतियाँ,
दूसरों पर, मढ़कर.
हो जाती है,
देर, जब
हो सामना, सच
से, डर – कर.
कब तक, छुपायेंगे
मुहँ, हकीकत से,
सामने, आना ही
होगा.
गलतियों का बोझ,
दूसरों के कंधे
नहीं, खुद, उठाना
ही होगा.
ऊपर – वाला देता है,
मौका सभी को,
प्रायश्चित और सुधरने
का.
कुछ सुनते, कुछ
करते अनसुना,
मौका, राह, बदलने
का.
सोच – समझ तय करना, ऐसा,
ना हो, कहीं,
देर
हो जाये.
प्रायश्चित का, मौका
भी, गवां
दें, और,
द्रश्य, बदल
जाये.
आधा – सच, झूठ
से भी, ज्यादा
खतरनाक, नुकसान करता
है.
खुद, तय कर
लो, सच
एक बार, झूठ, सौ – बार
मरता
है.
कोई, मुगालते में
ना रहे, आज
जो, बो – रहे, कल,
हमें है
काटना.
देर – सबेर, भले हो जाये, हमीं को, पड़ेगा,
हिसाब देना.
बहुत, गँवा चुके, पहले ही, आगे,
नहीं गवायेंगे.
अबकी बार,
समय से वादा,
देरी नहीं लगायेंगे.
पिछली बातें, याद
न आयें, इतना, बेहतर
करना है.
और नहीं, अब,
जय ही होगी,
यही सोच कर,
चलना है.
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