Saturday, August 29, 2009

लज्जा


आज मुझे लज्जा आती है, अपनो के बेगाने पर.
अपने ही दुश्मन बन जाते, मदद पुकारे जाने पर.
कभी-कभी लज्जा आती है, हमने ही यह हाल कएइया.
वरना देश सोने की चेइडॆईय़ाआ, वेइदेशेइयो ने नाम देइया.

सतयुग मे तो एक था रावण, सीता-हरण अभेइशाप बना.
अब अपहरण एक प्रोफेशन है, करोडॊ का कारोबार चला.
पहले अपहरण फएइर बलात्कार,मर्डर या जेइन्दा जला देइया.
इसके बाद फेइरोती ले ली, मानवता शर्म-शार केइया.

मूक-गवाह बने है हम सब, देख समझ भी है अनजान.
बेटी को बली चढा रहे है, बलात्कार कर बन शैतान.
और कही व्याभीचारेइणी बेटी, कत्ल कर रही है खानदान.
मा~और बाप बने है भेइखारी, लावारेइस, लाचार, हे भगवान.

कब तक ? देखने को शापइत हम, चीर-हरण मा-बहनो का.
द्वापर मे था एक दुशासन, अब शासन ही कौरवो का.
फरीयादी ही मुलजिम है अब, सच जो बोले, वह ही फन्सता.
इसीलिये सब जान बचाते,मुन्ह है छिपाते,मरता क्या न करता.

लेकिन यह क्या १ वही आ गया, चला जहा से, प्र्थ्वी गोल.
लज्जा से बचना है यदि, सोचो ! बुधिजिवियो, मुह-खोल.
उपाय ढूढ्ने ही होन्गे अब, बोलो मानवता के बोल.
मुश्किल कुछ भी नही है जग मे, जागो, उठो,समय अनमोल.

--- समाप्त ---

No comments: