Friday, November 5, 2010

अहसास.


आज खुशी से डर लगता है,
कहीं छ्ला न जांऊ फिर.
बहुत यत्न से इन्हें सम्भाला,
अश्क, छ्लक न आयें फिर.
इन्सानों ने, नहीं छ्ला है,
मेरी रूह, ही भटक गयी.
साज-समान सजा, खुशियों के,
जाने कहां ? वो चली गयी.
ढूंढा तो था, तन और मन से,
फिर भी, मैं नाकाम रहा.
वही हो गया, जिसका डर था,
सब बन कर, बेकार रहा.

फिर एक दिन, मन्दिर की घन्टी,
कानों में, कुछ बोल गयी.
सुभय-सबेरे भीनी खुशबू,
कुछ रुक - रुक कर, डोल गयी.
उडते पक्षी, बहती नदिया,
सबका यही इशारा है.
सुख-दुख पूरक हैं, जीवन के,
दरिया, समय, किनारा हैं.
बदला मौसम, नई उमंगें,
आशा और विश्वास नया.
अब होगा, जो नहीं हुआ है,
जागा है, अहसास नया.
---०---

Sunday, September 12, 2010

बोली.

बोली.


कोयल की मीठी - बोली, क्यों ?
सबके मन को, भाती है.
और, कौए की कांव-कांव क्यों ?
रह -रह, मन उचटाती है.
कुछ तो राज छुपा बोलों में,
मन वश में, कर लेते हैं.
कडवे - बोल, हमेशा मन को,
नफरत ही तो देते हैं.

आओ सोचें, सीखें हम भी,
पशु-पक्षी, पेडों, चिडियों से.
सब अपने हैं, हम भी, सबके,
मिल-जुल रहें, पडोसियों से.
बोली में, जादुई असर है,
बिगडा काम, भी बन जाये.
कर्कश, अहंकार की बोली,
महाभारत लडना पड जाये.

कडवी-बोली, मन विचलित कर,
गहरे घाव बनाती है.
फिर विनाश की लीला आगे,
नाकों चने चबाती है.
इसीलिये, शब्दों के चयन में,
होशियार, समझदार बनें,
मन में, बोल तोल कर बोलें,
खुशियों के हकदार बनें.
---०---

Wednesday, September 8, 2010

सपने सच भी होते हैं.


सपने सच भी होते हैं.
जब हौसलों में जान हो.
सिर्फ़ देखना ही काफी नहीं,
पूरे करने की, मन में ठान हो.

कल्पना की उडान में,
पंखों का योगदान कम है.
असल बात है, मजबूत इरादे,
तभी तो, उडान सम्भव है.


यूं तो, सपने सभी देखते हैं,
इतराते हैं, खुश होते हैं.
कितने हैं ? जो आगे बढते हैं,
पूरे करने की, कोशिश करते हैं.

जैसी द्रष्टि, वैसी स्रष्टि,
अपना, अपना नजरिया है.
असंख्य खजाने, छुपे हुए हैं,
कोशिश ही, पाने का जरिया है.

कोशिश भी, सिर्फ कोशिश नहीं,
कर्मठता और लगन जरुरी हैं.
प्रयत्नों में, यदि जुनून नहीं,
तो सारी कोशिशें, अधूरी हैं.

मजबूत इरादों, के सैलाब को,
क्या कभी, अड्चनें रोक पायीं हैं ?
मन में हो, कर गुजरने की चाह,
तो जुगनू ने, राह दिखायी है.

जीत उन्हीं को मिली,
जिन्होंने सोचा, हम जीत सकते हैं.
एक सपना नहीं, हजार सपने हैं तुम्हारे,
उठो, बढो, ठान लो, हम जीत सकते हैं.
---०---

सपने सच भी होते है.

Friday, September 3, 2010

मेरा - सच.

मेरा - सच.


सुना है, शाश्वत सच,
कभी नहीं बदलता.
बिल्कुल सोने की तरह.
समय, वर्षा, हवा,
और आग में तप कर भी,
सोना, सोना ही रहता है.
विषम परिस्थियों में,
चमक भले ही, फीकी पड जाये,
कीमत कम नहीं होती.

लेकिन आज ।
मैं जो देख, सुन रहा हूं,
वह वैसा नहीं है.
वर्षों जिस सच को,
जिया, पहना, ओढा,
रोज, कपडों की तरह,
लेकिन, जब वक्त आया,
तो उसी सच ने,
मुझे झूठा साबित कर दिया.

क्या कहूं, इस सच को ?
मैं गांधी, या हरिश्चन्द्र नहीं हूं.
ना ही मेरे पास सबूत है,
सच बोलने/ कहने का.
बस एक, छोटी सी आशा,
शायद, सोने की तरह,
मेरा-सच भी, एक दिन,
स्वमं को सिद्ध करे,
सच कभी नहीं बदलता.
---०---

Monday, August 30, 2010

जूते.

हां, ये सच है.
मैंने पुरानी यादों के कालीन पर,
पांव रखने से पहले,
जूते उतार दिये थे.
और ये भी सच है,
कि, यादों की भूल - भुलैया में,
ऎसा खोया कि, याद न आया,
कब, नंगे-पांव चल पडा.
चलता गया, चलता ही गया.
कुछ छूट गया, कुछ नया मिला.
यहां तक कि, जूते पहनने की,
पांवों की आदत, भी छूट गयी.
फिर एक दिन,
खट्टी-मीठी यादों में खोया,
पहुंच गया, भगवान के पास,
मन्दिर, मेरा बचपन का शौक.
ईश्वर से क्षमा मांगी,
अपनी गल्तियों के लिये.
और शुक्रिया अदा किया,
अल्लाह की नियामतों/ मेहरबानियों के लिये.
मन हल्का हो गया, राहत मिली.
मन्दिर से निकल ही रहा था,
कि, चौक गया, मन्दिर के बाहर,
मेरे जैसे, जूते देख कर.
समझ गया, नियति का सन्देश.
शायद ईश्वर भी चाहता है.
मेरे पांव, दुकान की ओर मुड गये,
लौटी खुशी, पहले-जैसे जूते पहन कर.
--- ० ---

Sunday, August 15, 2010

भूलें.

जीवन, एक भूल - भुलैया है.
भूलों से, हमारा नाता है.
हम ठोकर खा कर, गिरते हैं,
उठ कर चलना, स्वाभाविकता है.
हम में से ही, ज्यादातर,
भूल करें, तो दुखी सभी.
भूल करें, और भूल गये,
कुछ सीख्रें, ये सोचा न कभी.
जो साहस कर, निश्चय कर लें,
अब भूल को न दोहरायेंगे.
आगे बढें, बढते ही गये,
मनचाही मंजिल पायेंगे.


भूल करी, तो क्या गम है,
जीवन को आगे बढना है.
कोशिश और इच्छा-शक्ति से,
वह समय नहीं आने देंगे.
जब लज्जित होना पडा, झुके,
वो गहरा जख्म, भुला देंगे.
बहुत हो चुका, और नहीं अब,
और समय, बरबाद न हो.
नाविक की कार्यकुशलता क्या ?
जब धारा ही प्रतिकूल न हो.
ठान लिया, तो ठान लिया बस,
कोई ऎसा, काम न हो.


भूल, चुनौती देती हमको,
गिर कर, उठने का दम है ?
हां बिलकुल, इसमें क्या शक,
हम गिरें नहीं, दमखम है.
भूलों से, जो मिली चेतना,
व्यर्थ, नहीं जाने देंगे.
बीत गया, सो बीत गया है,
कल, खुशियों से भर देंगे.
भूल, भूलकर, भूल करें ना,
द्रढ - निश्चय ये हमारा है.
जीवन, फिर से मुसकायेगा,
झुकना नहीं गवारा है.

Tuesday, August 10, 2010

प्रतिध्वनि.

न जाने क्यों, कभी - कभी,
कुछ शब्द, मन के बन्द कमरे में,
बार - बार, गूंजते हैं.
और मैं, दूर कहीं,
अतीत में, खो जाता हूं.
काश । मेरे पास, ऎसा कुछ हो,
कि बीता समय लौटा लूं.
या फिर, मैं स्वयं,
भूत-काल की गहराईयों में, उतर जाउं.
लेकिन यह सम्भव नहीं.
यह तो, स्रष्टि के नियम-विरुध है.

कितना कुछ, बदल गया है आज.
कल, जो सच था,
आज वैसा, प्रतीत नहीं होता.
क्या सचमुच, सच बदलता है ?
या बदलती है, हमारी सोच ?
जो जमाने के साथ,
कदम नहीं मिला पाते, उन्हें कहते हैं,
गंवार, छोटी सोच वाले, आदि-आदि.
यहां तक तो, फिर भी ठीक है.
लेकिन, वर्तमान जब भूत को,
पहचानने से ही इन्कार कर दे ?

आज बर्सों पहले, कही बात, की प्रतिध्वनि,
मेरे कान में नहीं, मन में गूंज रही है.
जो कहते, वह करते, कर दिखाते.
या फिर ,कहते वही - जो कर सकते थे.
यह कल का सच था.
और आज का सच ।
मैं अभी भी, ढूंढ रहा हूं.
इसमें, शायद समय की गल्ती नही है.
गल्ती मेरी ही है.
मैंने, कल के सच को, ठीक से नहीं समझा.
और न ही, आज के इस सच को.
--- ० ---

Monday, August 2, 2010

जो होता है, ठीक ही होता.

जो होता है, ठीक ही होता.

इस वैग्य़ानिक युग में भी,
हैं कुछ रहस्य, अनसुलझे.
सब प्रश्नों के, मिले न उत्तर,
कुछ में पड कर, उलझे.
अन्धविश्वास का नहीं पक्षधर,
मैं चाहूं, बस इतना,
आधार बने आकार, सत्य का,
सार्वभौम सच जितना.
क्यों हम इस दुनिया में आय़े ?
क्या सब, पहले से निश्चित ?
है वह कौन, अद्रश्य शक्ति ?
करे नियन्त्रित, कार्यान्वित.

इसीलिये कहते आये क्या ?
जो होता है, ठीक ही होता.
जो होगा, वह ठीक ही होगा,
समय - चक्र, चलता ही रहता.
कौन बचाने वाला है वह ?
एयर-क्रैश में, जो बच जाये.
प्रलय और तूफानों में, वह कौन ?
जो किश्ती, बन कर आये ?
चारों और, मौत का तांडव,
गहरा संकट, छाया है.
जीवित बचता, बचने वाला,
कौन बचाने आया है ?

बडे - बडे वैग्य़ानिक, डाक्टर,
भी, रह जाते सकते में.
मौत के मुंह से, कौन बचाये ?
असम्भव, सम्भव पल भर में.
आदि - शक्ति, या ऊर्जा - शक्ति,
जो, विद्य्यमान है, कण कण में.
कुछ तो है, जो कभी बनाये,
कभी बिगाडे, क्षण - क्षण में.
चमत्कार, या महज छ्लावा ?
या वास्तिवकता, त्रण त्रण में.
ईश्वर का अस्तित्व नहीं यदि,
जीवन - स्रष्टि, जल - थल में ?

सभी धर्म - सम्प्रदाय, के दावे,
अलग, अलग और अलग नहीं.
अपने को सब, बडा ही मानें,
मूल - प्रश्न है, वहीं का वहीं.
आऒ हम सब खोज करें,
मानव, मानवता के लिये.
वैग्य़ानिक-सच, सब के ऊपर है,
सबकी शक्ति, सबके लिये.
धर्म हमारा, मानवता हो,
सब की हो, पहचान एक.
हम सब हैं बराबर, विश्व एक.
मालिक है एक, करें कर्म नेक.
- - - ० - - -

Friday, July 30, 2010

अभिलाषा.

अभिलाषा.


आज एक बार फिर,
मन कुछ उचाट है.
बाहर बारिश हो रही,
पर, मन में प्यास है.
आधी भीगी चिडिया,
पत्तों के झुरमुट में बैठी है.
और मैं, घर के अन्दर भी,
जैसे, भीग रहा हूं.
समय, तो साथ था उस दिन,
जिसे, मैं ढूंढ रहा हूं.

पुरानी घटनाओं के चित्र,
कराते हैं, जिन्दा अहसास.
फिर, डरे हम क्यों ?
कम था, अपना विश्वास.
सपने, कभी, कभी,
सिर्फ सपने नहीं होते.
अचानक, आंख खुल गयी,
सुभह होते होते.
फटॆ दूध की तरह,
सपने जोडे नहीं जाते.

मुझे याद हैं, आज भी,
खुशी के वे पल.
मन के, ताने - बाने ने,
बना लिये, हवाई महल.
लगता था, मिल गया,
वह सब, जो मांगा था.
लेकिन, प्रारब्ध ने शायद,
चित्र, उल्टा टांगा था.
लौट गयीं, खुशियां उल्टे-पांव,
शायद, कहीं और जाना था.

लेकिन, सपने सच न होना,
अपने में, अन्त नहीं है.
यह तो बुलावा है, भोर का,
सूर्यास्त नही है.
जीवन, सिर्फ जीना नहीं,
आगे बढने की भाषा है.
सबक, सीखते चलें निरन्तर,
आशा की परिभाषा है.
फिर आयेंगे, लौटे पल वे,
ऎसी एक अभिलाषा है.

- - - ० - - -

Saturday, July 24, 2010

भूलें.

भूलें.


जीवन, एक भूल - भुलैया है.
भूलों से, हमारा नाता है.
हम ठोकर खा कर, गिरते हैं,
उठ कर चलना, स्वाभाविकता है.
हम में से ही, ज्यादातर,
भूल करें, तो दुखी सभी.
भूल करें, और भूल गये,
कुछ सीख्रें, ये सोचा न कभी.
जो साहस कर, निश्चय कर लें,
अब भूल को न दोहरायेंगे.
आगे बढें, बढते ही गये,
मनचाही मंजिल पायेंगे.

भूल करी, तो क्या गम है,
जीवन को आगे बढना है.
कोशिश और इच्छा-शक्ति से,
वह समय नहीं आने देंगे.
जब लज्जित होना पडा, झुके,
वो गहरा जख्म, भुला देंगे.
बहुत हो चुका, और नहीं अब,
और समय, बरबाद न हो.
नाविक की कार्यकुशलता क्या ?
जब धारा ही प्रतिकूल न हो.
ठान लिया, तो ठान लिया बस,
कोई ऎसा, काम न हो.

भूल, चुनौती देती हमको,
गिर कर, उठने का दम है ?
हां बिलकुल, इसमें क्या शक,
हम गिरें नहीं, दमखम है.
भूलों से, जो मिली चेतना,
व्यर्थ, नहीं जाने देंगे.
बीत गया, सो बीत गया है,
कल, खुशियों से भर देंगे.
भूल, भूलकर, भूल करें ना,
द्रढ - निश्चय ये हमारा है.
जीवन, फिर से मुसकायेगा,
झुकना नहीं गवारा है.
---०---

Wednesday, July 21, 2010

जल ही जीवन.

जल ही जीवन.

बारिश की नन्हीं, बूंदों से,
तपती धरती कुछ शान्त हुई.
जीवों को, जीवन-दान मिला,
चहुं ऒर, खुशी की बात हुई.
सुखे मुरझाये, पौधों में,
नव-प्राणों का संचार हुआ.
सूखी माटी भी, महक उठी,
कण-कण में, जीवन-वास हुआ.

वर्षा की खुशी में, नाच उठे,
मेंढक, मोर, किसान.
बादल देख पपीहा बोले,
पीहू - पीहू की तान.
खेतिहर-मजदूर हुए खुश,
बंधी काम की आस.
जन-जीवन फूला न समाये,
सपने अपने पास.

वन्य-जीव, पशु-पक्षी, सभी ने,
खुश हो, ली राहत की सांस.
हरियाली की चादर फैली,
तान बांसुरी की, बिन बांस.
जीव-जन्तू सब , जश्न मनायें,
वर्षा का जादू छाया.
हंसी-खुशी, गल-बांह मिलें सब,
फूल खिले, जीवन भाया.

वर्षा ने फूंकी नई जान,
जन-मानस के, तन-मन में.
काम शुरु हो गये सभी,
जोश भर गया, जन जन में.
जल ही जीवन देता सबको,
बिन पानी सब सून.
जल-संचय को निश्चित कर लें,
ताकि बहे ना, जल पर खून.

पानी को बरबाद करें ना,
यही समय की मांग.
सबका हित ही, अपना हित हो,
खीचें ना, दूजे की टांग.
वर्षा-जल का सदुपयोग ही,
भावी पीढी को बचायेगा.
जल ना बने युद्ध का कारण,
जीवन बच ना पायेगा.
---०---

Wednesday, July 14, 2010

शब्द.

कभी-कभी खामोशी की गहराईयों में,
मेरे मन में, अस्फुट शब्द गूँजते हैं.
वे शब्द, जिन्हें बरसों पहले,
सुनने का मौका नहीं मिला.
या सुनाये जाने पर,
बाहर का रास्ता दिखा दिया.
जैसे किसी प्रितिबन्धित क्षेत्र में,
पकडे गये अजनबी,
के साथ सलूक किया जाता है.
आज न जाने क्यों, ये शब्द,
मुझे बहुत प्रिय लगने लगे हैं.
समय के लम्बे अन्तराल ने,
इनकी उपयोगिता बढा दी है.
कई दशकों पहले, के अतीत में,
आज जब झांकता हूं,
तो ये शब्द ही हैं,
जो मुझे वर्तमान से, अतीत की,
धुंधली यादों का परिचय कराते हैं.
अतीत, जो सुनहरा था.
आज और भी खूबसूरत लगने लगा.
जैसे कोई पुरानी जडी-बूटी,
मरणासन्न व्यक्ति के प्राण बचा ले.
या फिर किसी कंगाल को,
झौंपडी की नींव, खोदते समय,
पूर्वजों का गडा धन, नजर आये.
सूत्रधार बने ये शब्द, बीते समय,
और घटनाओं की, प्रासागिंकता का.
--- ० ---

Sunday, July 11, 2010

समय.

समय


समय का पहिया, घूमे रे भइया,
आगे बढता जाये.
पल पल घटता है ये जीवन,
बेशक उम्र बढे, फल लाये.
हम ही क्या, सब जीवन नश्वर,
जीव अमर नहीं कोई.
जो आया है, जाना ही है,
देर सबेर तो होई.

समय की घंटी बजती है,
कोई सुने, कोई अनसुना करे.
जो समझें, सुनें, करें निश्चय,
जीवन-पथ आगे बढे चले.
जिसने न समय को पहचाना,
वह पीछे छूटा, हार गया.
चिडियां चुग गईं खेत, तो अब,
पछ्ताये क्या होय ? भया.

समय बहुत ही मूल्यवान,
जिसने इसकी कीमत जानी.
पाया मनचाहा जीवन-धन,
कोशिश, मेहनत, श्रम-पानी.
बीता समय, लौट ना आये,
सोचो, समझो, भाई.
इसीलिये सब काम समय पर,
जीवन हंसे, फले, सुखदाई.

देख समय की धारा को,
चुप रहने में, भी भलाई.
अच्छा-बुरा समय आता है,
ज्वार - भाटा, की नांई.
समय परीक्षा भी लेता है,
धर्म, कर्म, जीवट की.
आशा का दामन ना छोडो,
संघर्श, दिशा जीवन की.

समय बने ताकत भी,
यदि हम पहचानें, सदुपयोग करें.
द्रढ-निश्चय और कर्मठता से,
सिकन्दर जैसा महान बनें.
तन - मन से, कोशिश जो करते,
पडें समय पर भारी.
समय - रेत पर, निशान छोडते,
पूजे दुनिया सारी.

--- ० ---
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Tuesday, June 15, 2010

भाग्य.

भाग्य.


मानव ने कुछ लिखा भाग्य में,
ब्रह्मा से नहीं पाया.
अपने श्रम-जल और सोच,
को ही हथियार बनाया.
मानव आज चांद जा पहुंचा,
नहीं भाग्य के बल से.
यह सब सम्भव हुआ, प्रेरणा,
सोच, कडी मेहनत से.
भाग्यवाद से बनें आलसी,
असफल हम जीवन में.
जैसा कर्म मिले फल वैसा,
जीवन-व्यापन क्रम में.

कर्म-यग्य़ से जीवन में,
मनचाहा फल हम पाते.
समय काल की परिधि को भी,
लांघ सफल हो जाते.
किस्मत का अस्तित्व मान लें.
तो भी यह निश्चित है.
कल जो कर्म किये थे हमने,
आज वही किस्मत है.
आज करेंगे जैसा, जो कुछ,
कल होगी वह किस्मत.
यह क्रम ही चलता अनवरत,
भाग्य कहो या किस्मत.

कर्म - प्रधान विश्व है सारा,
भेद यह जिसने जाना.
आगे निकल गया औरों से,
सबने लोहा माना.
कर्म धर्म है, कर्म ही पूजा,
कर्म सभी से ऊपर.
फल की इच्छा किये बिना,
यदि कर्म करें तो बेहतर.
ईश्वर मदद करें उनकी,
जो स्वयं मदद करते हैं.
भाग्य स्वयं ही मुस्कायेगा,
विघ्न दूर होते हैं.

---०---

Tuesday, June 8, 2010

प्रश्न चिन्ह.

प्रश्न-चिन्ह.


प्रश्न-चिन्ह लग रहा आज,
जीवन के किये-करायों पर.
बदला समय, बडी तेजी से,
छूटे हम चौराहे पर.
समझ न आये, जायें कहां अब ?
समय जो आगे निकल गया.
कुछ दूरी तक पीछे भागे
साथ समेटे, जो था लिया.
अपनी कोशिश, नाकाफी थीं,
रोज बदलती दुनिया में.
इन्टरनेट का युग अब आया,
माल बिका सब धेले में.

प्रश्न-चिन्ह है लगा आज,
मां-बाप की शिक्षा-दीक्षा पर.
वो प्यार-दुलार क्या व्यर्थ गया ?
मां की ममता है कसौटी पर.
इतिहास स्वंम को दोहराता है,
न जाने कितनी बार हुआ.
जीत हुई मां की ममता की,
दोषी जन शर्मसार हुआ.
खुशी- खुशी जो सहा है मां ने,
प्रश्न-चिन्ह के घेरे में.
मां-बाप की गलती यही,
उन्होंने देखा कल को, सपने में.

सब कुछ सह कर भी,
सपने को जिया, संवारा.
जान लगा दी सीमा में रह,
प्रश्न-चिन्ह, अब नहीं गंवारा.
मां-बापू ने दिया सभी कुछ,
जो कुछ उनके वश था.
अच्छी शिक्षा, मार्ग - दर्शन,
सदाचार शामिल था.
पाठ पढाया वही, जो सीखा,
मात - पिता, गुरु - जन से.
आज अचानक प्रश्न-चिन्ह क्यों ?
पूछें हम, किस किस से ?

मां का कर्ज, कोई चुका न पाये,
कहते आये ग्य़ानी.
कटा दिये सिर हंसते-हंसते,
लाज दूध की जानी.
बदला समय, हवा है बदली.
प्रश्न-चिन्ह निष्टा पर.
खडे किये, मां-बाप कटघरे,
अपराध-बोध, सीमा पर.
लेकिन हर मुश्किल में हम भी,
करें मुकाबला डट कर.
अन्तिम विजय हमारी होगी,
प्रश्न-चिन्ह को कट कर.

--- ० ---

Thursday, May 13, 2010

मेरा बेटा खो गया है.


ऐ दुनिया वालो,
यहीं कहीं, मेरा बेटा खो गया है.
रोज बदलती, दुनिया की इस चकाचौंध में,
शायद कहीं, भटक गया है.
हो सके तो कोई ढूंढ कर ला दे.
बदले में, चाहे तो सारी कमाई ले ले.
बडे यत्न से, पाला है उसे,
जैसे, सभी मां-बाप करते हैं.
आंखों से नींद, और मन का चैन,
जैसे रुठ गया है.
मेरा बेटा खो गया है.

मां-पापा का राजदुलारा,
मम्मी की आंखों का तारा,
कभी दीपू है, कभी सोना है.
सपनों को जैसे पहना है.
कभी देवकी का कान्हा,
तो कभी त्रेता का श्रवणकुमार.
पथराई आंखों से बहता पानी,
कह रहा है अनकही कहानी
न था कभी सोचा,
पड जायेगा सपनों का टोटा.
दूर हो जायेगा, मेरा अपना बेटा.
सपने, जो लगता था, सच हो गये.
अचानक ऐसा क्या हो गया है ?
आज मेरा बेटा खो गया है.

बहुत भोला और मासूम सा चेहरा.
आग्य़ाकारी, आत्मविश्वास का मोहरा.
फिर भी न जाने, किस बहकावे में,
या बदली सोच के वश में,
रेगिस्तान की मर्गमरीचिका की तरह,
किंकर्तव्यविमूढ हुआ, कुछ भूल गया है.
विदेशी संस्कर्ति की घुसपैठ,
भारी पड रही है, रिश्तों पर.
लगा हो जैसे गर्हण सपनों पर.
हम से भी जाने - अनजाने,
शायद कुछ भूल हो गयी.
सब गडबडा गया है.
मेरा बेटा खो गया है.

बेटा भी वहां खोया,
जहां उम्मीद न थी
हम तो लगभग आश्वस्त थे.
बेटा अब जवान हो चला है.
पढाई में अव्वल,
काम भी मन - माफिक.
हमें और चाहिये क्या ?
अब दिन बदलेंगे.
सपने सच होंगे.
इसी बीच, मां-पा को खबर लगी,
जवान बेटा कहीं खो गया है.
हम पर तो, जैसे पहाड ही टूट पडा.
सुनहरे सपने, क्षण में बिखर गये.
सांसें न जाने, रुक सी गयीं.
हम अपने से, अपने को छुपा कर,
एक दूसरे को समझा रहे हैं.
मेरा बेटा खो गया है.

बेटे के बचपन की मधुर यादें,
वो बीते, गौरवपूर्ण पल,
क्या सचमुच धोखा था ?
नहीं, कदापि नहीं.
शायद, यह धोखा है.
हमें भरोसा है, समय बदलेगा.
फिर लौटेंगे वे, सोने से दिन.
चांदी सी रातें.
लगता है, आवाज आई,
हैलो मौंम, पापा जी नमस्ते.
सोचा, शायद मन का भर्म है. नहीं.
सामने बेटा, चरण-स्पर्श के लिये झुका.
मैंने उठ, तुरन्त सीने से लगा लिया.
आज मुझे, खोया बेटा ही नहीं,
दुनिया की सबसे बडी दौलत मिल गयी.
आज मुझे, मेरा बेटा मिल गया.

--- ० ---