Wednesday, December 30, 2015

   नया साल ; नई उम्मीदें.


नये  साल  की  नई  सुभह,   का  है,  अभिनन्दन.
वर्ष  २०१६,  शुभ  हो  सबको,    प्रभु  से   वन्दन.
नव – उत्साह  और  नई  उर्जा,   मिलकर  बोझ  उठायेंगे.
बीत गया,   सो  बीत  गया,    नया  इतिहास   बनायेंगे.

सभी  सुखी  और  सभी  स्वस्थ  हों,   हे  ईश्वर, ऐसा  वर  दो.
भूखा – नंगा   रहे  ना  कोई,   कुछ  कर  दो,   ऐसा  कर  दो.
नया  साल  लेकर  आया  है,     ढेरों  नई   उम्मीदें  भी.
कुछ  सपने,  जो,  रहे  अधूरे,    वे,  होंगे  अब,  पूरे  भी.

अँधियारा  हम  दूर  करेंगे,   घर – घर  शिक्षा  का  उजियारा.
बेटी – शिक्षा,  सबसे  ऊपर,   माँ – आशीष,  हो  कवच  हमारा.
इन्सानियत  का  पेड़  उगायें,    सभी  धर्म   हों  शाखायें.
खुशबू  फैले   समरसता  की,   मिल – बाँट  कर,   फल  खायें.

हम  थे  एक,  हम  एक  रहेंगे,   आपस  में,  बढे,  भाई – चारा.
मिल – जुल  मसले  सुलझा  लेंगे,   सबसे  बड़ा,  है  देश  हमारा.
बुजुर्गों  का   सम्मान  करेंगे,    स्वास्थ्य,  सुरक्षा  का  अधिकार.
गाँव  शहर,  में  मिटेगी  दूरी,   भारत – माँ  की  जय,  जयकार.


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Saturday, December 19, 2015

माँ  को  श्रधांजली.


जानते  हुए  भी,  आज  माँ  नहीं,    माँ  की  यादें  शेष.
खोज  रहा  हूँ,  भूला  खजाना,    कुछ  यादों  के, अवशेष.
गंगा – किनारे,  दीप – दान  कर,   गो – धूलि  की  बेला  में.
माँ  को  अर्पण,  मन  का  तर्पण,   गंगा – तट  के  रेला  में.

आज  भी,   दे  रही  सम्बल,    मौन   माँ  की  याद.
जैसे,  तस्वीर  कह  रही  हो,   अनकहे,  शब्दों  का  नाद.
“ बेटा  घबराना  नहीं. “   ये  समय  भी,  बदल  जायेगा.
“ सच  का  साथ,  छोड़ना  मत,”  ईश्वर  काम  बनायेगा.

कितना,  विचित्र  संयोग  है !   माँ  का   अहसास  पाया.
भुलावा  ही  सही, कह  उठता  हूँ, -- हाँ,  माँ,  अभी  आया.
सूना  है  मन,  मन  का  कोना,   माँ  के  जाने  के  बाद.      
नहीं  भर  पायेगा,  वह  स्थान,   माँ  ही  माँ,  बस  माँ  की  याद.

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Thursday, August 13, 2015

कविता.


( यह रचना, ३० जुलाई २०१५ को लिखी गई. )
        
सावन   की   एक   साँझ,     मैंने   आसमान   की  ओर   देखा.
घुमड़ते  बादलों  की  तरह,  कुछ  शब्द,    मन  में,  बना  रहे,  रुपरेखा.
बिन   बरसे,   बादल   छंट   गये,    हवा   ने,   किया   कमाल.
अनमने  मन   से,   ढूंड  रहा   मैं,    कविता   का   माया – जाल.

नींद  आई.  सपना  भी  आया,     पर,  कवित्ता  का  पता  न  पाया.
सवेरे  उठा,   तो  हैरान,     पूछ   रही   कविता,  कुछ   खो  गया.
नहीं.  मैंने  कहा, -  लिखना  था  कुछ,    ढूंड  रहा,  शब्दों  की  ताल.
ओफ ! कहा   कविता  ने,     क्यों   निकाल  रहे,   बाल  की  खाल.

निकला  बाजार,  देखकर  हुआ  हैरान,    दुध – मुंही  बच्ची,  लेटी  जमीन  पर.
माँ,  बना रही,  सीमेंट – रेत  का  गारा,    भरा  तसला,  रखा  सिर  पर.
अभावों   की   पराकाष्ठा  से   अनजान,     बच्ची   सो   रही   है.
और  माँ,  पसीना  पोंछ,  पल्लू  से,    मन्द – मन्द  मुस्करा  रही  है.

भीख  माँग  रही,   एक  छोटी  लड़की,    जिसे,   कुछ  पता  नहीं.
पता  है   तो   बस  इतना,    भूखी  है,   खाने  को,   कुछ  नहीं.
नाम  `क`  से   बताती  है,     आगे  के   शब्द,   स्पष्ट   नहीं.
शायद,  कृष्णा,  कावेरी   या  कविता,    घटना  है,   गवाह   नहीं.


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Sunday, August 9, 2015

सड़क.


( यह रचना, २७ जुलाई २०१५ को लिखी गई. )

सड़क,  तारकोल – रोड़ी  से  बनी,    सिर्फ,  समतल  सतह  ही  नहीं.
जाने – अनजाने  चेहरों   व्   मुसाफिरों,     की,  मंजिल  भी   यही.
सड़क,  स्वागत  करती   सभी  का,     नहीं  भेद,   अमीर,  गरीबी  में.
सेठ – साहूकार,  चलें  मोटर – गाड़ी,    या,  नंगे – पाँव,  फटे – हाल  लाचारी  में.

कुछ  नहीं   जिनके  पास,     न  ही   रहने  का,   ठौर – ठिकाना.
फुटपाथ,  बने   सोने  का  बिस्तर,     जीवन,   जीने  का   बहाना.
क्या  धुप,   और  क्या  बारिश,    पेड़,   सड़क  का,   बने  सहारा.
सर्दी  बने,  कोढ़  में  खाज,    जीता – जीवन  कभी,  मौत  से  हारा.

सड़क,  चलने  का  रास्ता,  भर  नहीं,    माध्यम  बने,  मिलाने  का.
भटक  गये,   जो   यहीं – कहीं,     आमंत्रण,   घर   आने  का.
मानवीय – संवेदनायें,  अच्छाई,  बुराई,    दिखतीं  और  पनपती  हैं.
लूट – लिया  कोई,  सरे – राह,    कोई  गिरा,  उसे  उठाते  भी  हैं.

नेता  जी  का,  चुनावी  विजय – जुलूस,    सड़क  पर  पड़ता  भारी.
जाम  में  अटकीं,  बीमार  की  सांसें,    ख़त्म – होती  कहानी  सारी.
दूल्हे  की  बारात   का  उत्सव,     या,  शव – यात्रा   का  काफिला.
मूक – दर्शक   सड़क   बने  गवाह,     चलता  रहे,   ये  सिलसिला.

बावजूद  इसके,  सड़कों  का  जाल,    बनता,  तरक्की  की  पहचान.
सुगम – यातायात,   फले – फूले  व्यापार,    खुलते  रास्ते,  अनजान.
सड़कें   हैं,   तो   जीवन   है,     देती   जिन्दगी   को   रफ्तार
सम्मान  हो,  सड़क  के,  नियमों  का,  न  होने दें,  जिन्दगी,  तार – तार.

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Friday, July 31, 2015

 सपना चोरी हो गया.


( यह रचना, ३१ जुलाई २०१५ को लिखी गई. )

मुझे,  कल  ही  पता  चला,    मेरे  कुछ  सपने,  एक  चोरी  हो  गया.
जानकर,   लहूलुहान    हुआ   मन,     घाव   घहरा   बन   गया.
कहते  हैं,  समय  घाव  भर  देता  है,   शायद,  समय  बहुत  लगेगा.
बिखर  गया,  टूट  गया  मन  में,    फिर  से,  बनाना,  सजाना  पड़ेगा.

लोग  पूछते  हैं – तुम्हें, किस  पर  शक,   क्या,  बताऊँ – किसी  पर  नहीं.
सभी   अपने  हैं,   मेरे  अपने,     गैर,   तो   कोई,   है   ही   नहीं.
किसी  ने  कहा,   खुश – फहमी  में  हो,    अपने  ही,   छुरा  भोंकते  हैं.
मुझे,  सहसा  विश्वास   न  आया,    घटना   के  बाद  ही,   चौंकते  हैं.

इस   घटना   ने,   जैसे,   मुझे,    भीतर    तक,  झकझोर   दिया.
विश्वास  नहीं,  डेड  साल  पहले  का  सपना,    चोरी  हुआ  या  छुपा  दिया.
पीना   पड़ा,   जहर   भी,   यदि,     ख़ुशी – ख़ुशी   मैं,   पी   लूँगा.
जिनको,   मैंने    गोद   खिलाया,     आँच   नहीं,    आने   दूंगा.

हे  ईश्वर,   माफ   करो   उनको,     जिनसे,   अनजाने   भूल   हुई.
मैं,  भी   माटी  का   ही  पुतला,    कोशिश   कर  लूँगा,   एक  नई.
खोया  है  सपना,   हौसला  नहीं,    फिर  से,  बुन  लूँगा,  तिनका – तिनका.
चिड़िया  से,  मिली   सीख,     जगाऊंगा    विश्वास,  फिर  से,   मन  का.

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Sunday, July 26, 2015

धैर्य.


( यह रचना, २४ जुलाई २०१५ को लिखी गई. )

हम  दुखीं  हैं  इसीलिये,  क्योंकि,    कोई,  हमें  बरदाश्त  नहीं.
कुछ  भी,  यदि  मन  के  खिलाफ,    सुनने  को,  तैयार  नहीं.
फिर,  कैसे   बदलें  हालात ?     और  मुश्किलें   हों   आसान.
छोटी  सी  बात -  रख,  मुहँ  बन्द,     धैर्य  को,   दें   मान.

जिन्दगी  में,  ताल – मेल  की  कमी,    अक्सर,  हमें  खलती  है.
बिगड़  जाता  है,  काम, बनते – बनते,    बेवजह,  नफरत  पलती  है.
थोड़ी  सी,  समझ,  और  सहनशीलता,    बदल  सकती  है,  माहौल  को.
बस,  सुन  लें,   दूसरों  को  भी,     शान्त – मन,    सम्भावना   को.

सड़क  पर,   रोडरेज   की   घटना,      आम   हो   गई   है.
वाहन,  गलती  से,  छू  भी  दिया,    समझो,  आफत  आ  गई  है.
जानलेवा – क्रोध  और  यातायात  ठप्प,    शिष्टाचार  भी,  भूल  गये.
बस,   मैं   और   मेरा  रौब,     बाकी  -  सब,   .भाड   में,  गये.

शान्ति,  कैसे  रह  सकती  है ?    एक – दूसरे  को,  सहन  किये  बिना.
बात,   बन  सकती  है,  क्या ?    दूसरों  का  द्रष्टिकोण   समझे  बिना.
सहनशीलता    का   अर्थ,   कायरता,      या     कमजोरी    नहीं. 
चरित्र   की   महानता    है,   ये,      सही    रास्ता    है,   यही.


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Tuesday, July 21, 2015

गरीब – किसान.


( यह रचना, १५ जुलाई २०१५ को लिखी गई. )

गाँव  में,  गरीब  की  बेबसी,    बेमौसम – बारिश  की  मार.
एक – खेत   की   खेती,     पल   रहा,   पूरा   परिवार.
काले   पड़  चुके,   कुछ   दाने,    ही,   घर   तक  आये.
चारा  भी,  सैड  गया,  खेत  में,   भुखमरी  पशुओं  की,  लाये.

सरकारी – मद्द   की  उम्मीद,    उम्मीद  बन  कर,   रह  गई.
जमा – पूंजी    हुई   ख़त्म,      भैंस   भी,    बिक   गई.
घर  का,  छप्पर – पुराना,   टूट  गया,    सोचा   था,   बनाना.
गंगा – जमुना   बहेंगी,   घर  में,     चाहता  था,   सिर  छुपाना.

असाढ़  में,  फसल  की  तैयारी,    घर – में,  बीज  का  दाना  नहीं.
उधार,   ज्यों   का   त्यों,     पिछली    फसल   का   ही.
उजड़ा – उजड़ा  सा,  मंजर  है,    आँखों  में  भरा,  समन्दर  है.
हे  ईश्वर,   नैया   पार  करो,    पानी,   नैया  के,   अन्दर  है. 

बिटिया  आई,  और  लिपट  गई,    बोली,  बापू   न  हो  उदास.
एक  और  एक,  ग्यारह  बनते,   करने  की  हिम्मत,  अपने  पास.
जगी  चेतना,  फिर  से,  मुझ  में,    सुन,  प्यारी – बिटिया  के  बोल.
किस्मत  नहीं,  मेहनत  देगी  साथ,    बोल,  हैं  ये,  कितने  अनमोल.


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Friday, July 17, 2015

काम.


( यह रचना, ०९ जुलाई २०१५ को लिखी गई. )

प्रक्रति  हमें,  समझाती  पल – पल,    उठो,  चलो,  कुछ  काम  करो.
सूरज,   चाँद – सितारे,   कहते,    हम,   हैं  ना,   फिर,  काहे  डरो.
तोता – मैना   बातें  करते,    क्योँ,   मेहनत  से,   रहे   मुंह – मोड़.
घर – घर  गौरैया   कहती,  फिरती,    काम  करो,   आलस  दो  छोड़.

यह  जन्म  हमारा,  व्यर्थ  न  हो,    सोचो,  समझो  और  तय  कर  लो.
हम – सब  में,   ढेरों  है  शक्ति,     कुछ  काम  करो,   हिम्मत  कर  लो.
बहती – वायु,   झरने,   नदियाँ,      सदियों   से,    हैं,   समझाय    रहे.
चलना,  कुछ – करना,   जीवन  है,    जो  मिला  आज,  कल  रहे,  न  रहे.

कल  का  काम,   आज  करना  है,     और,   आज  का,   अभी  करो.
मिट्टी  का   सन्देश   यही,     जीना  है,   तो    काम   करो.
तभी,  न्याय   कर  पायेंगे  हम,     अपने   जीने  का,  अधिकार.
तन,  सुगठित,   मन  शान्त  रहेगा,    खुशहाली  की,   बहे  बयार.


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Wednesday, July 15, 2015

कहीं, देर ना हो जाये.


( यह रचना, २३ जून २०१५ को लिखी गई. )

सच,  बदल  नहीं  जाता,  अपनी  गलतियाँ,    दूसरों  पर,  मढ़कर.
हो  जाती  है,  देर,   जब  हो  सामना,     सच  से,   डर – कर.
कब  तक,  छुपायेंगे  मुहँ,  हकीकत  से,    सामने,  आना  ही  होगा.
गलतियों  का  बोझ,  दूसरों  के  कंधे  नहीं,    खुद,  उठाना  ही  होगा.

ऊपर – वाला  देता  है,  मौका  सभी  को,    प्रायश्चित  और  सुधरने  का.
कुछ  सुनते,   कुछ  करते   अनसुना,     मौका,   राह,   बदलने  का.
सोच – समझ  तय  करना,   ऐसा,  ना  हो,     कहीं,   देर  हो  जाये.
प्रायश्चित  का,   मौका  भी,   गवां  दें,     और,  द्रश्य,   बदल  जाये.

आधा – सच,   झूठ  से  भी,    ज्यादा  खतरनाक,    नुकसान  करता  है.
खुद,  तय  कर  लो,   सच  एक  बार,     झूठ,   सौ – बार  मरता  है.
कोई,  मुगालते  में  ना  रहे,  आज  जो,  बो – रहे,   कल,  हमें    है  काटना.
देर – सबेर,   भले   हो   जाये,   हमीं   को,     पड़ेगा,   हिसाब    देना.

बहुत,   गँवा   चुके,    पहले   ही,       आगे,   नहीं   गवायेंगे.  
अबकी   बार,   समय   से    वादा,     देरी    नहीं     लगायेंगे.
पिछली  बातें,   याद   न   आयें,     इतना,   बेहतर   करना   है.
और  नहीं,   अब,  जय  ही  होगी,     यही  सोच  कर,  चलना  है.


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Monday, July 13, 2015

अपना – अपना सच.


( यह रचना, २० जून२०१५ को लिखी गई. )
सब  हैं,   आदि – शक्ति  की  रचना,    लेकिन  सबका  अलग  वजूद.
कोई   दो  इन्सान,   विश्व  में.     नहीं   एक,   कहें   आँखें – मूंद.
सच  का   रूप,   कभी  ना   बदले,      प्रक्रति  है,   परिवर्तनशील.
यही,  वजह  बनती,  संशय  की,    होना  पड़े,  सच  को  ही,  जलील.

सबके,   अपने   अलग,   तर्क   हैं,     अलग   अलग     भगवान.
अपने   हित,   को   ऊपर    रखें,     फिर,   कैसे   लें,   जान ?
मन – माफिक   सच   को  तय   करते,     आफत,   लेते    मोल.
आखिर,   हो   जाते    बेनकाब,       जब   खुल    जाये    पोल.

सच  को,   सच,  ही   रहने   दें,    जाँच,   अपनी   शिक्षा – दीक्षा.
सत्यवादी  की,    जीवन – पथ   पर,     पग – पग   होगी,   परीक्षा.
सच,  एक  पूजा,   सच  है,  तपस्या,     महापुरुषों  का,  कहना  है.
तैयार  है,   जो  सब,   खोने  को,     उसने,   सच  को   जाना  है.

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मानव – धर्म.


( यह रचना, १६ जून, २०१५ को लिखी गई. )

जीवन में,  निश्चित,  कुछ  भी,  नहीं,    जो  सोचा,  वह  हुआ  नहीं.
पल – पल  बदले,  हालातों  में,     हो  रहा,  हुआ,  सोचा,  ही  नहीं.
ऐसा  भी  नहीं,  सब,  बुरा  हुआ,    कुछ  अच्छा  भी,  हिस्से  आया.
समझे  थे,  जो,   है  अभिशाप,     वरदान  वही,   बनकर  आया.

क्यों,  दोषारोपण  हो,  ओरों  पर,     हम,  भी  हैं,  बराबर – साझीदार.
शायद,  नौबत  यह  ना  आती,    होते,  यदि  सजग,  व  समझदार.
अब  पछताये,  कुछ  होय  नहीं,    जो  हुआ,  समय  वह,  बीत  गया.
कुछ  करें,  बनें,  खुद  के  प्रहरी,    बदलाव  जरुरी,   है,  समय  नया.

मानव – देह   यह,  मिली   हमें,     मानव – धर्म   निभाना  होगा.
अपने – लिये,  सभी  जीते  हैं,     ओरों  के  लिये   भी, जीना  होगा.
जो  भी  मिला,  है  सिर – माथे,    स्वीकार  करें,  सदुपयोग  करें.
बूंद – बूंद  से,   भरे   सरोवर,     सपने,    अपने   साकार  करें.

मानव – मानव  हैं,  सभी  बराबर,    ईश्वर  ने,  ना  भेद  किया.
हम,  क्यों  बंटे,  जाति – धर्मों  में,    कुछ  को,  पीछे  छोड़  दिया.
जीयो   और   जीने  दो,  सबको,    अपना,   योगदान   भी  हो.
पूरी – दुनिया,  घर  अपना  ही,    सबके – मालिक,   की  जय  हो.

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