Wednesday, July 15, 2015

कहीं, देर ना हो जाये.


( यह रचना, २३ जून २०१५ को लिखी गई. )

सच,  बदल  नहीं  जाता,  अपनी  गलतियाँ,    दूसरों  पर,  मढ़कर.
हो  जाती  है,  देर,   जब  हो  सामना,     सच  से,   डर – कर.
कब  तक,  छुपायेंगे  मुहँ,  हकीकत  से,    सामने,  आना  ही  होगा.
गलतियों  का  बोझ,  दूसरों  के  कंधे  नहीं,    खुद,  उठाना  ही  होगा.

ऊपर – वाला  देता  है,  मौका  सभी  को,    प्रायश्चित  और  सुधरने  का.
कुछ  सुनते,   कुछ  करते   अनसुना,     मौका,   राह,   बदलने  का.
सोच – समझ  तय  करना,   ऐसा,  ना  हो,     कहीं,   देर  हो  जाये.
प्रायश्चित  का,   मौका  भी,   गवां  दें,     और,  द्रश्य,   बदल  जाये.

आधा – सच,   झूठ  से  भी,    ज्यादा  खतरनाक,    नुकसान  करता  है.
खुद,  तय  कर  लो,   सच  एक  बार,     झूठ,   सौ – बार  मरता  है.
कोई,  मुगालते  में  ना  रहे,  आज  जो,  बो – रहे,   कल,  हमें    है  काटना.
देर – सबेर,   भले   हो   जाये,   हमीं   को,     पड़ेगा,   हिसाब    देना.

बहुत,   गँवा   चुके,    पहले   ही,       आगे,   नहीं   गवायेंगे.  
अबकी   बार,   समय   से    वादा,     देरी    नहीं     लगायेंगे.
पिछली  बातें,   याद   न   आयें,     इतना,   बेहतर   करना   है.
और  नहीं,   अब,  जय  ही  होगी,     यही  सोच  कर,  चलना  है.


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