Friday, July 30, 2010

अभिलाषा.

अभिलाषा.


आज एक बार फिर,
मन कुछ उचाट है.
बाहर बारिश हो रही,
पर, मन में प्यास है.
आधी भीगी चिडिया,
पत्तों के झुरमुट में बैठी है.
और मैं, घर के अन्दर भी,
जैसे, भीग रहा हूं.
समय, तो साथ था उस दिन,
जिसे, मैं ढूंढ रहा हूं.

पुरानी घटनाओं के चित्र,
कराते हैं, जिन्दा अहसास.
फिर, डरे हम क्यों ?
कम था, अपना विश्वास.
सपने, कभी, कभी,
सिर्फ सपने नहीं होते.
अचानक, आंख खुल गयी,
सुभह होते होते.
फटॆ दूध की तरह,
सपने जोडे नहीं जाते.

मुझे याद हैं, आज भी,
खुशी के वे पल.
मन के, ताने - बाने ने,
बना लिये, हवाई महल.
लगता था, मिल गया,
वह सब, जो मांगा था.
लेकिन, प्रारब्ध ने शायद,
चित्र, उल्टा टांगा था.
लौट गयीं, खुशियां उल्टे-पांव,
शायद, कहीं और जाना था.

लेकिन, सपने सच न होना,
अपने में, अन्त नहीं है.
यह तो बुलावा है, भोर का,
सूर्यास्त नही है.
जीवन, सिर्फ जीना नहीं,
आगे बढने की भाषा है.
सबक, सीखते चलें निरन्तर,
आशा की परिभाषा है.
फिर आयेंगे, लौटे पल वे,
ऎसी एक अभिलाषा है.

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