Monday, August 30, 2010

जूते.

हां, ये सच है.
मैंने पुरानी यादों के कालीन पर,
पांव रखने से पहले,
जूते उतार दिये थे.
और ये भी सच है,
कि, यादों की भूल - भुलैया में,
ऎसा खोया कि, याद न आया,
कब, नंगे-पांव चल पडा.
चलता गया, चलता ही गया.
कुछ छूट गया, कुछ नया मिला.
यहां तक कि, जूते पहनने की,
पांवों की आदत, भी छूट गयी.
फिर एक दिन,
खट्टी-मीठी यादों में खोया,
पहुंच गया, भगवान के पास,
मन्दिर, मेरा बचपन का शौक.
ईश्वर से क्षमा मांगी,
अपनी गल्तियों के लिये.
और शुक्रिया अदा किया,
अल्लाह की नियामतों/ मेहरबानियों के लिये.
मन हल्का हो गया, राहत मिली.
मन्दिर से निकल ही रहा था,
कि, चौक गया, मन्दिर के बाहर,
मेरे जैसे, जूते देख कर.
समझ गया, नियति का सन्देश.
शायद ईश्वर भी चाहता है.
मेरे पांव, दुकान की ओर मुड गये,
लौटी खुशी, पहले-जैसे जूते पहन कर.
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