Tuesday, September 1, 2009

भ्रम


कभी-कभी मुझे भ्रम हो जाता.
लाख सोच पर समझ न पाता.
अपना देश पराया लगता.
जीवन सपने जैसा लगता.
धरा वही, आकाश वही है.
फिर इन्सा क्यो बदल गया है ?
मानव दानव के चोले मे.
भेष बदल, अपने टोले मे.
अपनो का ही खून पी रहा.
खुद ही आग लगा कर घर को, शोर मचा रहा.

डाक्टर को भगवान मानते.
आज भी इस देश मे.
सफेद कोट के, काले कारनामे.
अपने भारत - देश मे.
नकली डाक्टर, नकली खून.
जानवरो का खून, इन्सानो के लिये.
अन्ग निकाले, इलाज के बहाने.
मौत बान्ट्ते, धन का जुनून.
और भी बहुत कुछ गड्बड - झाला.
पेशे को बदनाम ‘कुछ‘ ने कर डाला.

डा० सर्वपल्ली राधाक्र्श्न्णन और,
बाणभट्ट् के भारत देश मे.
आज डिग्रिया बिक रही सरे-आम.
पद और पैसे के प्रलोभन मे.
शिक्छा हुई, गरीब से दूर.
या गरीब की पहुच शिक्छा से दूर.
भ्रष्टाचार का बोलबाला है.
वी० सी० मन्त्री जी का साला है.
नई पर्तिभा का उदय कैसे हो ?
पूरी की पूरी पर्किर्या मे घोटाला है.

आधुनिकता की भेट चढ रहे.
खून के रिश्ते खून मे डूब रहे.
मा-बाप, भाई-बहन, बेटा-बेटी.
कोई नही पीछे, रिश्तो की डोर टूटी.
निरीह, बेसहारा, बच्चो का क्या होगा ?
पति-पत्नि के टूट्ते रिश्ते, आत्महत्या,
तलाक और आधुनिकता की अन्धी दौड.
क्या वास्तव मे जीवन-पर्गति-सूर्य उगेगा ?
आशा है हम सुधरेगे, जीवन सन्वरेगा.
मेरे इस भ्रम की धुन्ध धुलेगी,सवेरा होगा.

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