Saturday, September 5, 2009


जीवन : भाग - ४
सन्घर्ष.

जीवन का सन्घर्ष बना, जीवन-विकास का कारण.
लाखो-करोडो वर्षो के सन्घर्ष, बने जीवन-रण.
जब जब कुछ पाया मानव ने,वर्षो का सन्घर्ष फला.
आवश्यकता, आविष्कार की जननी, मन्त्र चला.
सन्घर्ष-चक्र चलता ही रहा, जीवन विकास-गति पाई.
पीछे मुड कर देखा ही नही, मानव-सभ्यता मुस्काई.
सन्घर्ष का इतिहास, बहुत-कुछ सिखा रहा पीढी को.
अब यह हम पर निर्भर है,कुछ जोड बढाये सीढी को.

जीवन के सन्घर्ष आज, चहु -ओर मचा कोलाहल.
दो वर्गो मे बन्टा समाज, सन्घर्ष बना जीवन-हल.
एक के पास तो सब कुछ है, पर पाना चाहे और.
दूजे के पास तो कुछ भी नही,खाना,कपडा,न कही ठौर.
गरीब का सन्घर्ष तो रोज की रोटी, जीना ही मुश्किल है.
कभी-कभी तो वह भी नही, बस सन्घर्ष ही जीवन है.
यक्छ-प्रश्न अब उठता है, क्या यह झगडा नाहक है ?
मानव मानव सभी बराबर, सबका, सब पर हक है.

जीवन की मुस्कान के पीछे, वर्षो का सन्घर्ष लिखा.
कर्म-यग्य से जीवन के सुन्दर सपनो का स्वर्ग दिखा.
जीवन सफल हुआ उसका ,जो कर्म-लक्छ्य़-सन्घर्ष किया.
बिना लक्छ्य, सन्घर्ष बिना, जीवन समझो सपना ही जिया.
भाग्यवाद है अकर्मण्यता, जीवन की असफलता.
बिना कर्म के, भाग्य-भरोसे, जीते जी ही मरता.
इसी लिए तो प्रथ्वी मान्गे, श्रम-जल सीचा उपवन.
तभी फसल लहलहाये खेत मे, पुलकित हो मन भावन.

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