Tuesday, September 8, 2009

जीवन : भाग-५
सफ़र.


जीवन का सफ़र, कुछ जाना भी,
लेकिन फिर भी अनजाना है.
कब शुरु हुआ, यह तो है पता.
पर खत्म कहा, नही जाना है.
सामान बान्ध लिया, लम्बा सफ़र,
लेकिन पल की भी खबर नही.
पल-पल को जीना ही बेहतर,
जो मिला उसे खोना भी नही.

जीवन-चक्र नही रुकता है,
इसीलिए चलना होगा.
फूल खिले या कान्टे डग मे,
चलते ही जाना होगा.
चलने का नाम ही जीवन है,
रुक गये तो समझो, सान्स रुकी.
हो सफ़र सुहाना, यत्न करो,
अन्त-घडी, रोके न रुकी.

यह सफ़र बडा ही रोचक है,
चलते है सभी, पर पता नही.
कुछ मिले, बीच मे छूट गये,
होन्गे ये विदा, था ग्य़ात नही.
कभी-कभी लगता है यह,
हम खुशकिश्मत, जो सन्ग मिला.
दूजे पल ही सब छूट गया,
सोचा जो नही, वह दुख मिला.

जीवन के सफर मे, जो भी मिले.
आखिर तो बिछुड ही जाते है.
सिलसिला, यू ही चलता रहता,
हम स्वम कहा रुक पाते है ?
कभी खुशी मिली, तो गम भी है,
दोनो ही जरुरी, जीवन मे.
सुख-दुख की आन्ख-मिचौनी से,
बढता जीवन, घर-आन्गन मे.

जीवन का सफर, हो सुहाना-सफर,
कोशिश हो, हन्से जग सारा.
जब-जब दुख की बदली छाये,
हो चारो तरफ अन्धेरा.
आशा-दीप जला, मन मे,
धर धीरज, कर्म - बसेरा.
जीवन फिर से, मुसकायेगा,
खुशिया बने सवेरा.

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