Wednesday, July 22, 2009

जीवन - भाग १


यह जीवन हेअ. जीवन क्या हेअ ?
आये कहाँ से हम ? जाना कहाँ हेअ ?
इस जीवन का रह्स्य हेअ क्या ? समझा ना कोई.
भट्कन ये ऐसी, जैसे अन्धा कुआ या खाई.

यह सच हेअ, अल्ला, ईश्वर, गा‘ड, दे ना दिखाई.
लेकिन यह भी उतना ही सच, देख रहा वह सब.
हम क्या करते ? केअसे जीते हेअ,जीवन - अभिनव.
उसका दिया हुआ ही सब-कुछ, लुटा रहे या गवा रहे हम.

हमे पता नही, कब तक हेअ हम ? जाना होगा, यह निश्चित हेअ.
फिर भी हम इस सच को भूळ, चाळॆ ळूट्ने सबका, सब-कुछ.
हमे पता हेअ,खाली हाथ ही आये थे,और जाना होगा वएइसे ही.
फिर भी हम अनजान बन रहे, रात घेइरी, ज्यो आखे बन्द.

यही पहेली उलझन मेरी, ज्यो ज्यो सोचू उलझता जाउ.
रिश्ते-नाते अपनी जगह हेअ, सभी सही या सही नही.
इसका निर्ण्य समय ही करता, जिसका कोई तोड नही.
तब तो दुवईधा दूर हुई अब, आदि-शक्तई, शत-शत, प्रणाम.

जो भी हिस्से मे आया हेअ, सुख या दुख स्वीकार हमे.
नियति ने जिस हाल मे ढाला, खुशी-खुशी दरकार हमे.
कोशिश होगी बुरा न सोचे, बुरा न कहे, बुरा न करे.
शायद थोडा कुछ कर पाये, कुछ नही से तो कुछ बेहतर हेअ.

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