Sunday, May 17, 2015

उजियारा होने को है.

दुःख की काली घटा घिरी हैं,  ऊपर से अंधियारी रात.
 काटे समय, कटे नहीं दुःख का, लाख जतन, ना चले बिसात.
धीरे- धीरे  छूट रहे हैं,  बने सहारा,   जो अब तक.
कल की बात, तो कल ही जाने,  आज अँधेरा सीमा तक.
ऐसे में, चमका ज्यों जुगनू,  देवदूत सा लगा,  हमारा.
आशा बंधी, नहीं खोया सब,  होने ही को है, उजियारा.

कभी- कभी, लगता है ऐसा,  जैसे, सब -  कुछ, गँवा दिया.
गलती  निश्चित ही, अपनी है,   अपनों ने आघात दिया.
जब- जब सोचा, और कोशिश की,  अपने हालात बदलने की.
लेकिन,  समय ने साथ दिया ना,   नौबत आई, गिरने की.
तभी,  कहीं से  आई आवाज,  संभलो,  उठो,  करो, विश्वास.
गिरना नहीं, गिर कर, संभलो ,तुम,  जीवन –आशा, खडी है पास.

कभी- कभी   मन डांवांडोल,   कोई युक्ति,   काम न आये.
अपनों पर,   अपनापन भारी,   बदल गये,  जो अपने साये.
चारों ओर,   निराशा  फैली,   गम के बादल,   छाये हैं.
एकाकी मन,  भटक रहा है,   अनहोनी,   बन  आये हैं.
तभी, हुआ,  ज्यों, टूटा  सपना,   सजा,   पूर्ण होने को है.
दुःख की,  काली घटा,  छ्टेगी,   उजियारा  होने को है.

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( यह रचना २८ अक्तूबर २०१३ को लिखी गई. )       

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