‘’नई – सुभह’. 
( यह रचना, ०३ मार्च २०१४ को, मूलतः लिखी गई. )
मन को महका गया, बसंत का, 
प्यारा सा, एक झौंका. 
कमरतोड़ – मेहनत के बाद,   पाया
हो,  बिछौना फैंका. 
क्या, कहूँ,  जिन्दगी – जीवन,  ये, क्या, क्या, रंग दिखाती है. 
जो, काम,  सुपुर्द घड़ियों के,   वो,  लम्हों से करवाती हैं. 
यही, तो है, “ जीवन – संजीवनी.” 
वर्ना  जीना है, जंजाल. 
जीवन – जीने, की जद्दोजहद, 
धन- वैभव, भी, पर, हैं कंगाल. 
यदि,  कोई कहे, - ईश्वर, हैं
नहीं.  तो, मैं सहमत, बिल्कुल भी नहीं. 
शिव – रात्री के, पावन – दिन,  मुझे, दर्शन दिये,  अतिश्योक्ति, नहीं.
एक,  छोटी बच्ची  के रूप में,   घर
मेरे,   आये, भगवान. 
मैं,  तो हुआ निहाल,  साथ में, 
खुशियाँ दे दी, बन अनजान. 
मुझे, हंसाया,  और
बहलाया,  बोली, - बाबा, ‘’ क्यों हो उदास.”
?’
“यही तो जीवन.  कहा  कान में. 
 खुश रहने का,  करो प्रयास.
मंत्रमुग्ध,  रह गया,  ताकता,   सुन,  प्यारी, बच्ची,  के बोल. 
धन्य – हुआ, इस लायक, समझा, 
वे, पल थे,  कितने अनमोल.
नई – चाह,  जागी है,  मन में,   नई –
उर्जा,  का प्रवाह. 
व्यर्थ  नहीं  जाने दूंगा,  मैं,   सीख बने,   जीने की
राह. 
देख, समझ,  ईश्वर का इशारा,   नई, -
सुबह,  होने को है.
मेरा,  तन – मन, अर्पण प्रभु
को,   नव – बसंत, आने को है.
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