Thursday, June 4, 2015

‘’नई – सुभह’.
( यह रचना, ०३ मार्च २०१४ को, मूलतः लिखी गई. )

मन को महका गया, बसंत का,  प्यारा सा, एक झौंका.
कमरतोड़ – मेहनत के बाद,   पाया हो,  बिछौना फैंका.
क्या, कहूँ,  जिन्दगी – जीवन,  ये, क्या, क्या, रंग दिखाती है.
जो, काम,  सुपुर्द घड़ियों के,   वो,  लम्हों से करवाती हैं.
यही, तो है, “ जीवन – संजीवनी.”  वर्ना  जीना है, जंजाल.
जीवन – जीने, की जद्दोजहद,  धन- वैभव, भी, पर, हैं कंगाल.

यदि,  कोई कहे, - ईश्वर, हैं नहीं.  तो, मैं सहमत, बिल्कुल भी नहीं.
शिव – रात्री के, पावन – दिन,  मुझे, दर्शन दिये,  अतिश्योक्ति, नहीं.
एक,  छोटी बच्ची  के रूप में,   घर मेरे,   आये, भगवान.
मैं,  तो हुआ निहाल,  साथ में,  खुशियाँ दे दी, बन अनजान.
मुझे, हंसाया,  और बहलाया,  बोली, - बाबा, ‘’ क्यों हो उदास.” ?’
“यही तो जीवन.  कहा  कान में.   खुश रहने का,  करो प्रयास.

मंत्रमुग्ध,  रह गया,  ताकता,   सुन,  प्यारी, बच्ची,  के बोल.
धन्य – हुआ, इस लायक, समझा,  वे, पल थे,  कितने अनमोल.
नई – चाह,  जागी है,  मन में,   नई – उर्जा,  का प्रवाह.
व्यर्थ  नहीं  जाने दूंगा,  मैं,   सीख बने,   जीने की राह.
देख, समझ,  ईश्वर का इशारा,   नई, - सुबह,  होने को है.
मेरा,  तन – मन, अर्पण प्रभु को,   नव – बसंत, आने को है.

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