Monday, October 12, 2009



त्यौहारों का मौसम आया,
ईद, दशहरा और दीवाली.
लेकिन फिर भी जोश नही है,
जेबैं खाली, थाली खाली.
प्याज रुलाती थी पहले भी,
अब आलू भी साथ हो लिये.
सब्जि मंहगी हो गयी इतनी,
आम-आदमी कैसे जिये ?

चीनी मंहगी, दालें मंहगी,
दूध, तेल की बात करें क्या ?
रोज मजूरी, तब हो खाना,
वो बेचारे, अब खायें क्या ?
ऎसे में त्यौहार आ गये,
कुछ कडवा, कुछ नीम-चढा.
अब ऊपर वाला ही मालिक,
खत्म हुआ, घर में जो पडा.

जमाखोर, कालाबाजारी, मिली-भगत.
मौज उडा रहे, बिचौलिये.
वसूल रहे हैं, दो के दस,
दुकानदार बन सुभाषिये.
बेबस जनता, तमाशबीन सरकार.
फरियाद किसे, कहां पुकार ?
दिखाई ना दे, जनता पर जुल्म,
कौन जगाये, सोई सरकार ?

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