Tuesday, October 27, 2009

रोटी का टुकडा


१-रोटी के एक टुकडे,
की आस में,
गरीब के मासूम बेटे,
की खामोश निगाहें,
पूछ रहीं थी एक सवाल.
क्या आप ?, हम,
दे पायेंगे उसे जबाब.
शायद नहीं !
इसीलिये वह बेचारा,
निराशा में मुंह फेर कर,
एक बार फिर,
मां के फटे-आंचल में,
असफल कोशिश में,मुंह छुपाने की,
फिर दूसरी ओर,
ताकने लगा.
शायद अबकी बार,
कहीं से, रोटी का,
सिर्फ एक टुकडा,
हाथ में आ जाये.
बस ! और कुछ नहीं,
सिर्फ, रोटी का एक टुकडा.

२-दुकान से लौट कर,
सेठ जी ने ज्यों ही,
रोटी का पहला टुकडा,
बेमन से, मुंह में डाला.
स्वाद को कसैला बना,
चीख पडे !
फिर वही सब्जी ?
कितनी बार कहा है,
मुझे गोभी पसन्द नहीं.
बेचारी नौकरानी !
क्या करती ? डर गयी.
लेकिन मालिक !
यह तो पत्ता-गोभी है.
सेठ जी गरज उठे,
हरामजादी, बेहया.
जबान लडाती है.
कितनी बार समझाया.
लेकिन फिर वही !
लगता है तुझे,
सबक सिखाना ही पडेगा.
जल्दबाजी में उठे,
चूल्हे पर भगौने में,
खौलता पानी,
नौकरानी पर उंडेल दिया.
बेबस लडकी की चीत्कार,
फैंकी-रोटी के,
चन्द टुकडों में दब गयी.

---०---

1 comment:

Sandeep said...

your first attempt towards story writing through a poem and its marvellous...excellent expressions with appropriate words at just the right place...i simply love this one.